रचना और आलोचना | Rachana Aur Aalochana
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8 MB
कुल पष्ठ :
177
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about कमलाकान्त पाठक - Kamalakant Pathak
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)६ रचना श्रीर ध्रासोचना
किसी नौ युग श्रौर समाज कौ स्तौमान्नौ का श्रतिक्रमण करने मे समर्थ होतो है । इती प्रकार
साहित्य का विकास रचना श्रौर श्रालोचना कौ सम्बद्धा का हौ परियाम नहीं है, ्योकि
झन्यान्य श्रन्तर-चाह्म स्यितियां भो उसे घंयटित फरतौ ह । श्रदश्य हौ रचन श्रालोचना
के पारस्परिक सम्बन्धो को खोजसीन युग-जोवन के सद्म के द्रनाव में एकांगी होतों है ।
रचयिता प्रायः श्रात्म विज्ञप्ति कस्ते ह ग्रौर श्रपनी प्रालोचना श्राप लिखते ह)
समानधर्मा श्रालोचक के रभाव श्रयवा श्रात्मरति के आग्रह के कारण यह दनीचिल्य प्रत्यक
होता है 1 वास्तव में रचयिता को श्रपनी छति में ही परिवुष्ट होना चाहिए, पर यशलिप्सा;
मत्सर या व्यावसायिक प्रतिप्ठा के खातिर वह स्वयं घ्रालोचर का चाना भी घारण कर
लेता है । वह ्रपनी साहित्य-दुप्टि या सैद्धान्तिक मात्यत्तात्रों के स्पप्टीकरण के लिये जव-
तव लम्बी झालोचनायें भी लिखा करता है । इसे दुद्धिवादी युग का तकाजा समझा जाता
है । श्रालोचना साहित्यानुभूति का वौद्धिक निरुपण होती श्रवश्य है, पर चह विशेष से
सामान्य तक, श्रन्भूति से सिद्धान्त तकत श्रयवा छरति विशेय ते फति मात्र तक के सत्य का
सन्धाने करती ह । यही बह व्यक्तिगत उपलब्धि को सार्वजनिक वस्तु श्रौर व्यापक सत्य के
रूप में प्रकॉवित फरती है । समानधर्मा श्रालोचक की यहीं भूमिका होती है, झन्पया
वह नये प्रतिमानों को सृष्टि करने में असफल हो जाता है श्रीर साहित्य की गति श्रवरुद्ध
हो जाती है । जिस प्रकार व्यक्तिगत श्रनुभूत्ति को सर्वेसंवेद्य रूपाकार देनेंपर ही रययिता
कृतकार्यं होता है, उसी प्रकार कृति विशेष से सम्बन्धित श्रपनी वैयक्तिक प्रतिक्रिया;
धारणा या सारित्यानुमूति को जो ऋलोदक भ्रवृत्तिधारः, युग या साहित्य माद्र के स्त्य
के निकप पर कस सेता है, उसी का फयन प्रमाण उन सत्ता ह } अतएव लेवकीय श्राल-
सना प्रकृत्या व्यविंतगत वस्तु अधिक होती है श्रीर सार्वजनिक कम । उसका प्रमुख श्रावा-
पण च्यदि्ति-सत्य का उद्घाटन होता है, फति का सा्वेजनिकत मूल्यांकन चहं ? इस स्थिति
मे कचि श्नौर सामाजिक के सध्य श्रालोद्क का श्रस्तित्व श्रनावश्यक श्रौर ्रनुपयोगी
समझ लिया जाता है 1
समानधर्मा श्रालोचक का रचयिता के लाय प्रायः सीधा सस्चन्ध स्ापित हये जाता
हू, पर यदि चहू सम्बच्ध सार्वजनिक न हुझा, शथदा रचयिता श्ौर श्ालोचक दोनों का पार-
स्परिक ही नहीं सामाजिक ये साथ 'मी प्रत्यक्ष सम्चन्ध स्वापित न हो पाया था वह सम्बन्ध
छिन्न-लिन्न हो गया, तो रचना और झालो चना दोनों हो पथ-झप्ट हो जाते हूं । स्पय्टतः
रचना, झालोचना श्र सामाजिक तीनों में कहों झलगाव नहीं होना चाहिए ज्रर्थात
इन्हें साहित्य षे त्रिकोन के रूप में परस्पर सम्बद्ध रहना चाहिये । इसी स्थिति में
रचना श्र सालोदना दोनों छृत-कार्य हो सफती हैं सैर दोनों का समवेत विकास सी
सम्भव होता है 1
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