रचना और आलोचना | Rachana Aur Aalochana

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Rachana Aur Aalochana by कमलाकान्त पाठक - Kamalakant Pathak

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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६ रचना श्रीर ध्रासोचना किसी नौ युग श्रौर समाज कौ स्तौमान्नौ का श्रतिक्रमण करने मे समर्थ होतो है । इती प्रकार साहित्य का विकास रचना श्रौर श्रालोचना कौ सम्बद्धा का हौ परियाम नहीं है, ्योकि झन्यान्य श्रन्तर-चाह्म स्यितियां भो उसे घंयटित फरतौ ह । श्रदश्य हौ रचन श्रालोचना के पारस्परिक सम्बन्धो को खोजसीन युग-जोवन के सद्म के द्रनाव में एकांगी होतों है । रचयिता प्रायः श्रात्म विज्ञप्ति कस्ते ह ग्रौर श्रपनी प्रालोचना श्राप लिखते ह) समानधर्मा श्रालोचक के रभाव श्रयवा श्रात्मरति के आग्रह के कारण यह दनीचिल्य प्रत्यक होता है 1 वास्तव में रचयिता को श्रपनी छति में ही परिवुष्ट होना चाहिए, पर यशलिप्सा; मत्सर या व्यावसायिक प्रतिप्ठा के खातिर वह स्वयं घ्रालोचर का चाना भी घारण कर लेता है । वह ्रपनी साहित्य-दुप्टि या सैद्धान्तिक मात्यत्तात्रों के स्पप्टीकरण के लिये जव- तव लम्बी झालोचनायें भी लिखा करता है । इसे दुद्धिवादी युग का तकाजा समझा जाता है । श्रालोचना साहित्यानुभूति का वौद्धिक निरुपण होती श्रवश्य है, पर चह विशेष से सामान्य तक, श्रन्‌भूति से सिद्धान्त तकत श्रयवा छरति विशेय ते फति मात्र तक के सत्य का सन्धाने करती ह । यही बह व्यक्तिगत उपलब्धि को सार्वजनिक वस्तु श्रौर व्यापक सत्य के रूप में प्रकॉवित फरती है । समानधर्मा श्रालोचक की यहीं भूमिका होती है, झन्पया वह नये प्रतिमानों को सृष्टि करने में असफल हो जाता है श्रीर साहित्य की गति श्रवरुद्ध हो जाती है । जिस प्रकार व्यक्तिगत श्रनुभूत्ति को सर्वेसंवेद्य रूपाकार देनेंपर ही रययिता कृतकार्यं होता है, उसी प्रकार कृति विशेष से सम्बन्धित श्रपनी वैयक्तिक प्रतिक्रिया; धारणा या सारित्यानुमूति को जो ऋलोदक भ्रवृत्तिधारः, युग या साहित्य माद्र के स्त्य के निकप पर कस सेता है, उसी का फयन प्रमाण उन सत्ता ह } अतएव लेवकीय श्राल- सना प्रकृत्या व्यविंतगत वस्तु अधिक होती है श्रीर सार्वजनिक कम । उसका प्रमुख श्रावा- पण च्यदि्ति-सत्य का उद्घाटन होता है, फति का सा्वेजनिकत मूल्यांकन चहं ? इस स्थिति मे कचि श्नौर सामाजिक के सध्य श्रालोद्क का श्रस्तित्व श्रनावश्यक श्रौर ्रनुपयोगी समझ लिया जाता है 1 समानधर्मा श्रालोचक का रचयिता के लाय प्रायः सीधा सस्चन्ध स्ापित हये जाता हू, पर यदि चहू सम्बच्ध सार्वजनिक न हुझा, शथदा रचयिता श्ौर श्ालोचक दोनों का पार- स्परिक ही नहीं सामाजिक ये साथ 'मी प्रत्यक्ष सम्चन्ध स्वापित न हो पाया था वह सम्बन्ध छिन्न-लिन्न हो गया, तो रचना और झालो चना दोनों हो पथ-झप्ट हो जाते हूं । स्पय्टतः रचना, झालोचना श्र सामाजिक तीनों में कहों झलगाव नहीं होना चाहिए ज्रर्थात इन्हें साहित्य षे त्रिकोन के रूप में परस्पर सम्बद्ध रहना चाहिये । इसी स्थिति में रचना श्र सालोदना दोनों छृत-कार्य हो सफती हैं सैर दोनों का समवेत विकास सी सम्भव होता है 1




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