प्रत्यक्षजीवनशास्त्र | Pratyaksh Jivan Shastra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१०] प्रत्यक्षमीवनशास्त्र यौ बुद्धे. परतस्तु स ” कटा कि बात खत्म हुई । श्री अरविन्द ने भी जितना सा मैं जानता हूँ भक्ति पर ही जोर दिया है। भक्ति मे, श्रद्धा से तो कुछ भी माना-जाना जा सकता है, स्वत स्फुति से किसी को आत्म साक्षातुकार हो जाता होगा तो वह भी प्रयग वत्त है पर भ्राजफल मेरा ध्यान गहनतम विपयो को बुद्धि से समझने का यल करने की श्र है । जिसका फलाफल जैसा होगा सामने आ जाएगा । स्वय तो पूछता ही रह जाता हूँ :-- न आदि है तो नहि अन्त भी कही, न कल्पना की कुछ वात है कही ? विचार मेरा चलता तही कही, मुझे बताओ यदि पता हो कही ?? और अजान मैं हूँ मुझको पता नही, सुजान जो हो उनको पता नहीं । अनादि वोलें विन अन्त बोले, रहस्य क्या है कुछ भी पता नहीं ॥। भतू हरि ने कहा है दिवकालादयनवच्छिन्ना-- नन्त॒विन्मा् मूर्तये । स्वानुभूत्येकमानाय नम शान्ताय तेजसे । स्वानुभूति ही जिन्तका एकमात्र प्रमाण है--कहने ही तो सातों ही स्याल कुए में गिर जाते है ।” मैं तो यह कहता ही रहता हुँ कि पता नहीं कौव कितना जानता है, पर जिनने जान लिया है वह यदि मेरे सामने ग्रा जाए हो भी मुझककी बता देना, समझा देना उनके वस की वात नहीं हो सकती । मीठे-खट्टे का स्वाद खुद खाने मे खुद के अनुभव में शरा जाएगा, पर एक के ढारा कोई सा भी स्वाद दूमरे को बताया नहीं जा सकता 1 जो कूछ भी मेरे सुनने, पढ़ने, देखते मे आ्राया है उस पर मे मैं तो खाक भी नहीं




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