बदलो के घेरे | Badlo Ke Ghere

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Badlo Ke Ghere  by कृष्णा सोबती - Krishna Sobti

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मननों अन्दर च दी, तो धाप-ही ब्राप मैं भी साय हो लिया । कम्दल उठा- कर बडी माँ ने विटिया को लिटाया, वाल ढीते करने-वरते माये को छा घोर मेरे लिए दुमो पान सींचक्र दार लै गयी 1 भमन्नो 1 मन्नो वोली नहीं 1 दुदली-मी वाहं तनिक्-सो प्रणि दी, प्रौर.“-फिर एका- एक कुछ सोचकर पीछे खींच ली 1” श्राज जव स्वय भी मन्नो-चावन गयाहूसौ बार श्रपने को न्योछावर कर उसी झण को लौटा लेना चाटताहँ। म वृर्मो पर वंटा-व॑ावेमो उम गद्‌ को छू नहीं सका था ? बयों उम हाय को सदला नहीं सका था? उमख्वेमन को किसी ने जैमे जकडदर वहीं, उस वुर्मी पर ठहरा लिया या 1 क्या था उम शिमक में * कया था उस किमवनेवाले सन में ? रहा होगा, यही भय रहा होगा, जो श्रव मुभने मरे प्रियजनों को दूर रखता है । उस रात जब जाने को उठा था, तो ाँखों वा मोह पीछे वाँवता था, मन वा मय धागे खीचता या भौर जब जल्दी-जल्दी चलवर डाक-वंगले में पहुँच गया, तो लगा कि मुदत हो गया हूँ, झण-झग जद टने वन्पन से मुक्त हो गया हूँ । उस भ्रभागी 'रात में जो मुक्ति पायी थी, वह मुे कितनी फनी, चाहत्प हूँ, माज एक बार मन्तो देखती तो । रात-मर ठीक-मे स्रो नहीं पाया । वार-वारनौदमे लगना कि मूवाती मेँ हूँ। भुवाली में सोया हूँ । वही “पादन्स' का बडी दर्टी खिडियॉवाना वमरा है । मन्नोके परलगप्ररसेटा हम्नौरपाम पटो दर्भ पर वंटो-वंटी मन्नो प्रपनी उन्हीं दो प्राँघो से मुमे निरटारतौटहै। र्ये हायप्नागिबरताहं प्रौरवट्‌ थोडा-सा हमसबर सिर हिसाही हुई बहती है, नटो, दमे कम्ल दे नोचे कर लो । भव इसे कौन छुएगा ?” मन्नो 1 मन्नो कुछ कटी नहीं, टख-मर देती है । रात भर इन दुस्वप्नों में भटवने के बाद जगा, तो बुग्रा दीस पडों--”कुछ हाथ नहीं लगेगा, रवि ! ” उस सुबह फिर मैं रुका नहीं, न डाव-वेंगले में, न मुवाली में वसवे प्रददे पर पहुंचा, तो घूप में बुनी-दुमी मुदाली सुक्े भयादनी लगी । एव बार जी को टटोला--'पाइन्म' नहीं **नहीं* कुछ नहीं” लोट जाय । 'घर पहुँचकर बुझा मिली 1 कड़ी वेतावनीवाता दिचा्जखवा चेहरा था । मरुर्‌ णु देववर उमे छत रोके पुटः, कये कन्द 7” “रानीखेत ठक गया था, बुझा ! ” 20 | यादों के घेरे




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