नरबाधा | Narbadha
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
106
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)जीभ दी है, जो जिसके मन में आये सो कह लें। जब भगवान रामचन्द्र सरीखे भी अवतार
धारण कर दूसरों को जीम पर नियत्रण नहीं रख सके तो साधारण मनुष्य की तो सामर्थ्य ही
क्या ? व्यर्थ ही में चिन्ता करना मूर्खता के सिवा और कुछ नहीं हो सकता। यदि मैं पुरुष होती
तो. ” कहते-कहते सुमन की आँखें डबडवा गईं!
ठाकुर साहब को दु खित करने के लिए इतना ही काफी था। वे स्नेहयुक्त शब्दों में
बोल पडे, “सुमन !” स्वर में स्नेह के साथ कठोरता भी प्रतीत होती थी।
सुमन ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया, “कुछ नहीं कहूँगी, भैया ! जो घाहो सो कर सकते
हो!” कहती हुई भाई के पैरों पर शॉल ढकने लगी क्योंकि सर्दी पड रही थी। वह फिर से बोल
उठी, “अब भी क्रोध शान्त नहीं हुआ भैया ! आप कितने कठोर हो ?”
बस, इतना ही काफी था। उसी क्षण ठाकुर साहव के चेहरे की सारी कठोरता विलीन
हो गई और शान्ति छा गई। फिर सुमन ने कहा, “इसीलिए तो विज्ञ लोग कहा करते हैं कि
मनुष्य मे सहिष्णुता को होना परमावश्यक है। कारण कि अपने मत से दूसरे का मत न मिलने
पर भेदभाव फा श्रीगणेश हो जाता है। आगे चलकर यही मतान्तर में परिणत हो जाता है। इसका
परिणाम क्या होता है, सो किसी से छिपा नहीं। क्यों भैमा, है न ?”
ठाकुर साहब ने उत्तर दिया, “भे तो इसमे रजाभन्दी देने में कोई आपत्ति नहीं देखता,
मुमन । किन्तु इस प्रकार का उपद्रव शान्त करने का सामर्थ्य हम लोगों में से किसमें है ? जब
स्वय भगवान भी इससे नहीं बचे तो इसकी उपेक्षा करना भी मैं पाप समझता हूँ। इसके पक्ष
में प्रमाणों की कोई कमी नहीं है, सुमना क्यों ?”
सुमन ने उत्तर दिया, “पाप क्या है भैया ? जहाँ कारण प्रचुर मात्रा में हैं वहीं तो मनुष्य
की जवान से निकली हुई चति की उपेक्षा करना अनिवार्यं हे! ठह पर रे न कलना अप
समा जाता है। किन्तु मँ अभी तक निर्णय नहीं कर सकी कि मानव के इन भावों को किस
सजना से सम्योधित रिया जाय। इसमें सन्देह नहीं कि जो पाप-प्रवृत्ति है, उसकी कल्पना तक करना
मेरे सामर्थ्य से बाहर है, भैया ! पर इसकी उपेक्षा भी तो करना पाप है।”
ठाकुर साहव का चेहरा सुमन के इस उत्तर से प्रफुल्लित हो गया। उन्होंने कहा, “तुम
ठीक कहती हो सुमन । मनुष्य की यही प्रवृत्ति, जि्तक॑ कारण मनुष्य मनुष्य का जानी दुश्मन
बन बैठा है, महापाप है - भीषण अपराध है। लेकिन सुमन जो प्रवृत्ति आदिकाल से मानव
को पैतृक सम्पत्ति के रूप में आज तक मिलती आई है, उसको तिलाजलि देने के लिए लोगों
को अब तक सुशिक्षा नहीं मिली है और जब इस प्रवृत्ति की इतिश्री करने वाले गरदन ऊँची
उठाते हैं तो हम उच्च स्वर से गरम उठते हैं कि पचों की बात नहीं मानने वाला घोर पातकी
है। अत... ” ठाकुर साहब ने अपनी वात समाप्त करने से पहले ही सुमन के चेहरे की ओर
नटबाधा/9
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