तार सप्तक | Taar Saptak
श्रेणी : काव्य / Poetry
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4.13 MB
कुल पष्ठ :
88
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about गजानन माधव मुक्तिबोध - Gajanan Madhav Muktibodh
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)कि अंपनी उण्णता से धो चले अविवेक तूहै मरण तू है रिक्त तू है व्यर्थ तेरा ध्वस केवल एक तेरा अर्थ । १० नाश देवता घोर घनुघर बाण तुम्हारा सब प्रा्णों को पार करेगा तेरी प्रत्यचा का कपन सूनेपन का सार हरेगा । हिमवत् जढ़ नि स्पन्द हृदय के अन्घकार में जीवन-भय है । तेरे तीक्षण बाण की नोकीं पर जीवन-सचार करेगा 1 तेरे क्रुद्द वचन बाणों की कर गति से अन्तर में उतरेंगे तेरे क्लुव्घ हृदय के शोले उर की पीढ़ा में ठहरेंगे । कोपित तेरा अधर-सरफुरण उा में होगा जीवन-वेदन रुप्ट दंगों की चमक बनेगी आत्म-ज्योति की किरण सचेतन । सभी उरों के अन्धकार में एक तड़ितू बेदना उठेसी तभी सजन की हित जड़ावरण वी सही फटेगी । शत-शत बाणो से घायल हो बढ़ा चलेगा जीवन-अछुर दु्न की चेतन किरणों के ह्वासा काली अमा हटेगी । हे रहस्यमय ्वस महाप्रभु - जो जीवन के तेज सनातन तेरे से जीवन तीक्ष्ण बाण से नूतन सजेन । हम घुटने पर नाश-देवत वेठ तुझे करते है वन्दन गजानन मुक्तिवोध मेरे सिरपर एक पेर रख नाप तीन जग दू असीम चन । ११ सुजन-क्षण जो कि तुम्हारे गत बने हैं उनपर लहराकर भरता में एक अवज्ञा । चद्दी गभीर अतल होते है वेद्दी सदा अमल होते है फिर जाती जिनपर वन्या-सी मेरी प्रज्ञा । जबकि स्वय में सुज्ञ बना हू अन्नोका अन्तर पाकर ही सदा रहूं उनका चाकर ही वे कि जिन्होंने आत्मरक्त से मुमको सीचा । केसे हँस सकता हूं में उन पर ही । उनकी मर्यादाएँं पाकर दरिया अमर्याद लहराया अपने स्व॒रमें स्वरातीत गीता दुलराता मेंने अरे उसीको पाया । वे अपूर्णताए ईंर्प्याएँं सुकमे घुलकर घुलुकर वनतीं सु सनातन यह छिछलापन लघु अन्तर का क्षण-क्षण नूतन को करता है शीघ्र पुरातन। यों नूतन की विजय चिरन्तन महामरण पर सहाजन्म का उदय श्िप्तर महा भयकर से बहता है परम झुभकर । जो खण्ट्ति औ भम रहें हैं वे अखण्ठ देवता उन्हीके मुकमे आकर मम हुए हैं । ये आँसू ये चिन्ताके क्षण मुकमे आकर पा परिवर्तन जगके सम्सुख नस हुए हैं । औओ रे भग्न नग्न मलिनेकि खण्डित उम्र विकलके सागर भो छुह्प वीभत्स सनातन-- की प्रतिनिधि ध्रतिभाके आगर अरे अशिव चौने मस्तक के चिरविद्ठू प स्वप्न आत्मान्तक १७
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