मास्टर माहिम | Mastar Mahim

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मनोज वसु - Manoj Vasu

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माया गुप्त - Maya Gupt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मास्टर महिम, १३ . पर सस्ता थोड़ा हो. जायगा 1“ - : .. छोटे-से दरवाजे से भीतर आंगन मे जाक्रर सातकरौडी ने अन्दरका ` ताला खोला । फिर जोर से आवाज छगाई, “महाराज, मेरा एक दोस्त भी आया है--हमेशा रिकनेवाला दोस्त ¦! ज़रा ख्याल रखना । कमरे के अन्दर आकर उन्दने वाहरवाच्छ दर्राजा नही खोला । बोले, “रात को तो यह सोने क़ा कमरा रहता है, दिन को,दफ्तरं वन. जाता है। उसी समय वह वाहरवाला दरवाज़ा खोछता हुं। बाहर के लोग आते हैं.।” . ` कुर्सी खिसकाकर उन्होंने एक ओर कर दी तो कुछ जगह निकल भाई। जमीन पर चटाई विदा दी। लकड़ी की अलमारी में से चहर-तकिया निकाल- कर वोले, “और कमरा नहीं सिलता । अयल-बयल दो कमरे मिलें तो काम जे । एक में आफिस रहे, दूसरा सोने के काम आवे । कया बताऊं, भाई, चार साछ से पर फंलाकर नहीं सोया । कितनी तरह से कुसियों को जमाया है पर इससे ज्यादा जगह नहीं निकलती ! घर जाकर इतने दिन बाद हाथ- पर फैलाकर सोया, तब जान-में-जान आई ! महिम चकित होकर वोला, “जिघर देखता हूं, मक्नान-ही-मकान तो हैं। इतनी ईटें कहां से झाई ? आप फिर थी कह रहे हैं कि कमरे नहीं सिलते 1” भया, आदमी भी तो यहां कीड़ों की तरह कुछबुला रहे हैं । कितने सड़क की एटरियों पर पढ़े रहते हैं, यह किसी दिन रात को बाहर जाकर देखना । कभी-कभी तो चाहर जाना होता ही रहेगा ।” खाना-पीना खतम हुआ तो पान चबाते हुए सातकौड़ी ने महिम को वगलवाली जगह दिखाकर कहा, “यहीं पर लेट जाओ, मेरी बगल में ! बाप रे, तुम्हारा सीना कितना चौड़ा है । चित्त होकर लेटे तो दो पक्के हाथ जगह तो ले ही लोगे । मुश्किल ही है । मेज को और जरा उधर खिसका दो) काम-काज निवटाकेर सोने के लिए समय ही कितना वचेता है। कितने तो वैठे-वैठे ही सो केते हैं। समझ लो ऐसा ही है। फिर मां गंबेदवरी ओर वावा गणेश की कृपा से व्यापार में अगर तरक्की हो जाय तो दोनों वगछ तकिया लगाकर गद्दी पर सोकेंगे । तुम्हारी क्या राय है ? तख्ती पर बड़े-बड़े कारोबारों के नाम देखकर महिस ने सोचा था कि




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