अभिधम्मत्थसंगहो | Abhidhammatthasangaho

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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द न १ ३ प यथाक्रम उत्पन्न ह्यकर निरोध को प्राप्त होता है । इसके बाद उन्नतीस (२९) कामाक्चर जवन चित्तो मे जो कोई भी चित्त प्रत्यय कन्ध होता है, वह श्रायः सात बार वेग से गमन (= जवन) करता है । मूर्छा आदि के समय पर पाच या छ: जवन' करता है ! इसीलिये श्रायः' कहा गया है । जवन का अनुबन्ध (अनुगमन) करने वले दो तदारम्मण विपाक (चित्त) यथा योग्य प्रवतित होते हैँ। इसके बाद भवङ्ख-पात । भव ङ्घ चित्त रूपी नदी का वह स्रोत है, जिसमें कोई लहर नहीं उठती अथवा जिसमें ही सभी चित्त-वीथियाँ उठ उठ कर विलीन होती रहती हैं । चित्त की वीथि-प्रवृत्ति को सरलता से समझाने के लिये यह उपमा दी जाती है। एक आदमी फलदार आम्रवृक्ष के नीचे सिर ढक कर सो रहा है । पास गिरे आम्र-फल का दाब्द सुनकर जागता है। सिर पर से कपड़ा हटाता है। आंख खोलता है। देखता है। उसे लेता है। मलकर, सूंघकर, पका जान खाता है। मुंह में पड़े रस को लार सहित निगल कर फिर उसी तरह सोजाताहै। आदमी के निद्रित रहने के समय के समान है भवङ्क-समय । फल के गिरने के समय जैसा है आरम्मण का 'प्रसाद' टकराने का समय । उस (आस्रफलक) के गिरने के शब्द से जाग उरते का समय है आवजंन- समय । आंख खोलकर देखने जसा है चक्षु-विज्ञान के प्रवतित होने का समय । ग्रहण करने जैसा है सम्पटिच्छन-काल । मलने के समय जैसा है सत्ती रण-काल । सूंघने जेसा है वोट्ठपन-काल। परिभोग (न्ल्खाने) जैसा है जवन-काल । मुख मे पड़े रस को लार के साथ निगलने जंसा है तदारम्मण- कारु दुबारा सो जाने जैसा है फिर मवङ्ग-पात (पृ० ४५) । प्रशन पेदा होता है चित्त-चेतसिकों की इन सुक्ष्म प्रक्रियाओं का ज्ञान कंसे प्राप्त किया गया ? यही उत्तर है कि यह मानस-साक्षात्कार मात्र है। जसे अपने हाथो को ही मरूमल कर आदमी अपने हाथ साफ कर लेता है, उसी प्रकार साधक अपने चित्त को ही साधना हारा अधिक एकाग्र, अधिक स्वच्छ, अधिक सूक्ष्म करके उस निर्मल प्रज्ञा को प्राप्त कर लेता है जिसकी प्राप्ति होने पर यह सारा ज्ञान उसे दपेंण में आकृति की भांति स्पष्ट भासने लगता




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