प्रेरणा के स्त्रोत | Prerana Ke Strot
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
246
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)मर्यादा पुरुषोत्तम राम १३
ह विश्वास हो गया था कि वे प्रवय ही इसमे सफ़ल होगे।
\ यक्त के साथ-साय सीतास्वयंवर का भी भ्रायोजन था ।
प्रधासमय सभा जुडी । वडे-वडे वीर जिन्हें ्रपते बल-पौरष
र पृश विश्वास ही मही शरमिमान भी था, वहा उपस्थित हुए ।
केततु उनकौ लज्जा को कोई ठिकाना नही रहा, जब वह पिव
नृष उनसे उठना तो हर, उनसे सरका तक नही । बड़े-बड़े
शरीरो की यह स्थिति देख जनक को बडी निराशा हुई। उन्होनें
पहाँ तक कह डाला कि वीर विहीन मही मै जानी
रामचरितमानस) । राम श्रभी देक वने श्रत्यात्य वीरो फ
प्रसफल प्रयासों का तमाशा देख रहे थे । राजा जनक के मुह
प निकले उक्त * शब्द 'न्हे वड़े प्रनूचित लगे। लक्ष्मण तो
| उततर दिये बिना रह ही नही सके । उठ खडे हुए श्रौर वोले-
कर “रघुवसिन्दु महूं जहूं कोउ होई ।
तेहि समाज भरत् कह न कॉई।।''
4 (रामचरितमानस)
महर्षि विद्वामिन्न ने श्रव राम की ओर सकेत किया,
तर राम गम्भीर किन्तु सहज भाव से धनुष के निकट जा
(पहुँचे । फिर उतने हो सहज भाव और सरलता से उन्होंने उसे
हठा लिया । धनुष को उठाकर उनका उस पर प्रत्यश्चा चढ़ाना
1 कि वह दो खण्ड होकर भूमि पर गिर पढ़ा । सारा उपस्थित
क्षमाज चक्ति रह गया। ्रतिस्पधियो के मस्तक नतत हो गये ।
{पिम की जय-जयकार से श्राकाश गुत्नायमान हो उठा । राजा
=-=
(3
० न्दर ~
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