प्रेरणा के स्त्रोत | Prerana Ke Strot

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Prerana Ke Strot by विपिनविहारी वाजपेयी - Vipinavihari Vajapeyi

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about विपिनविहारी वाजपेयी - Vipinavihari Vajapeyi

Add Infomation AboutVipinavihari Vajapeyi

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
मर्यादा पुरुषोत्तम राम १३ ह विश्वास हो गया था कि वे प्रवय ही इसमे सफ़ल होगे। \ यक्त के साथ-साय सीतास्वयंवर का भी भ्रायोजन था । प्रधासमय सभा जुडी । वडे-वडे वीर जिन्हें ्रपते बल-पौरष र पृश विश्वास ही मही शरमिमान भी था, वहा उपस्थित हुए । केततु उनकौ लज्जा को कोई ठिकाना नही रहा, जब वह पिव नृष उनसे उठना तो हर, उनसे सरका तक नही । बड़े-बड़े शरीरो की यह स्थिति देख जनक को बडी निराशा हुई। उन्होनें पहाँ तक कह डाला कि वीर विहीन मही मै जानी रामचरितमानस) । राम श्रभी देक वने श्रत्यात्य वीरो फ प्रसफल प्रयासों का तमाशा देख रहे थे । राजा जनक के मुह प निकले उक्त * शब्द 'न्हे वड़े प्रनूचित लगे। लक्ष्मण तो | उततर दिये बिना रह ही नही सके । उठ खडे हुए श्रौर वोले- कर “रघुवसिन्दु महूं जहूं कोउ होई । तेहि समाज भरत्‌ कह न कॉई।।'' 4 (रामचरितमानस) महर्षि विद्वामिन्न ने श्रव राम की ओर सकेत किया, तर राम गम्भीर किन्तु सहज भाव से धनुष के निकट जा (पहुँचे । फिर उतने हो सहज भाव और सरलता से उन्होंने उसे हठा लिया । धनुष को उठाकर उनका उस पर प्रत्यश्चा चढ़ाना 1 कि वह दो खण्ड होकर भूमि पर गिर पढ़ा । सारा उपस्थित क्षमाज चक्ति रह गया। ्रतिस्पधियो के मस्तक नतत हो गये । {पिम की जय-जयकार से श्राकाश गुत्नायमान हो उठा । राजा =-= (3 ० न्दर ~




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now