नागरी प्रचारिणी पत्रिका | Nagari Pracharini Patrika

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Nagari Pracharini Patrika by जयशंकर मिश्र - Jayshankar Mishr

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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यद्गान ९५ जक्षणारूपकलापिनीपजन्य मानुसु्ता-लता-पारिजाद ! षोडशस्मी सदस्चष्धुः प्रसार हार-सार-मसार-मोह्न-शरीर ! 'विजयराघव सूपाल-भजन-कोल केलु मोच्येद्राज गोपाल ! नीकु ॥ यह देवतास्तोत्र है पर इसमें कवि का नाम मी जोड़ दिया गया गया है} शुप्रीव विजय' में कवि का नाम नहीं श्राता । “सुप्रीवविजय में कवि कृतिपति की प्रशंसा करता है जो प्रबंधघशेली की विशेषता है न कि यक्तगान की । इसलिये विजवराघव देवतास्तोश्र के श्रर्नतर 'कैवार' को जोडते हैं । राज गोपाल चरणारविंद भजनानंद सांद्र ! रघुनाथनायकं रन्नाकरावतीणे संपू पूर्णिम चंद्र ! पांड्च तुंढीरादि बेरि गज कंठीरव किशोर ! कलावत्यंबिकाकुमार ! चंद्रोपेंद्र सुरेंद्र नंदन- कंदपंकोटि सौंदयंघुयें ! जीणेकरणाटक साम्राध्य सिंदासनास्थापनाचा्य ! समरसभयाष्वरिव समस्त निस्तुलवुलापुरषादि मषा दनापदान प्रचर्तितकीर्तिधौरेय ! संगररंगगांगेय ! प्रतिषिनि बहू स्च व्राह्णाभिष्ट मृषटान्न दान दीक्षाधघुरीण ! मानिनीनूतनपंचषाण ! विश्व- विश्वंभराभरणविचक्तण दक्षिण भुजादंड ! शाश्वकैश्वयं धौरंघयें - मेरुकोदंड ! ददिण- सिंहासन पष भद्र ! कल्ियुग-रासभद्र ! चतुर्विध. कविता निवहक ! सावंभौम बिरुदांगद विराजमान चरणांभोज ! फषि-समाज-मोज ! जनकचरण- राजीव-सेवा-बिधायक ! विजयराघबनायक ! तदनतर वचन मे नायक श्चादि का परिचय यौ दिया जाता है (स्वामीकृतः विप्रना रायणचरित नामक विचित्र नाटक श्रमिनय कुशलतापूर्वंक प्रदर्शित किया जाता है एवं सुनाया जाता है; सावधान होकर सुनिएु (१ के. पराक ! स्वासिवारु हवसिंखिन विप्रमारायणयरित बनु दिखित्र नाटकंबु सटपटिस गराजुर्पिच विनिर्पिचेसु । विननवधघरिंपुमु । पराकु ! स्वामि ! पराकु !




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