बापू के पत्र | Bapu Ke Patra

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Bapu Ke Patra by राजेन्द्र प्रसाद - Rajendra Prasad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१४. ˆ वापुकेषपत्र गी कि इस जीवन मे किस तरह महात्माजी के सहवास के योग्य वन सरू । मेरी राय में आज भारत में ग्रीवों के साथ यदि कोई एक-जीव हुआ है तो वह महात्माजी हैं । महात्माजी मानो 'कारुण्य की मूर्ति हैं । गरीबों के कष्ट ' टूर करने में अमीरों के साथ भी अन्याय न होने पावे 'औरभिसन:भिन्न वर्गों के वीच ट्षष भाव तनिक भी पंदा न हो; इसकी वह हमेशा चिन्ता रखेंते हैं। इसी- लिए भारतवषं के सव धमे, पन्थ ओर वग के लोग उनको आत्मीयता कौ दृष्टि से देखते हँ । चातुवेण्यं का तौ मानो उनमें सम्मेलन ही हृञा है । भारतवपं पर . उनका जो असीम प्रेम हं उसके लायक यदि हम भारतवासी वनतो भारत का उद्धार अवश्य हो जाय । मेरी समझ में तो महात्माजी का सहवासं जिसने कियो हौ `या उनके * , तत्वों को समञ्चने कौ कोरिदा की हो, वह्‌ कभी निरत्साही नहीं हौ सकता । 'वह हमेशा उत्साहपुर्वक अपना कत्तेव्य पालन करता रहेगा; क्योकि देश.की' स्थिति के सुधरने में--स्वराज्य मिलने में--भले ही थोड़ा ..विलम्ब हो, परन्तु जो व्यक्ति महात्माजी के बताये माग से कार्य करता रहेगा; मु विश्वास है कि वह अपनी निजी उन्नति तो जरूर कर लेगा; अर्थात्‌ अपने लिए. ` ` ता स्वरज्य वह्‌ अवश्य पा सकता हू । न मुझे अपनी कमजोरियों का थोड़ा ज्ञान रहने के कारण मेंने वापू को गुरु नहीं वनाया, न माना; 'वाप अवश्य माना है। वह भी इसलिए कि दयायद उन्हें बाप मानने से मेरी कमजोरियां हट जावें | जिस दिन मैं महात्माजी के पुत्र-वात्सल्य के योग्य हो सकंगां वही समय मेरे जीवन के लिए धन्य होगा । --जमनालाल बजाज ४ नि २ न न के [8 क {- ५५२५१५4 ~= द २: ८




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