हरिवंश पुराण | Harivansh Puran

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Harivansh Puran by पुप्फ़यंत - Pupfayant

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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महाकवि पुष्पदन्त १६ पुम्भव है कि उनका कोई देसी राब्दोका कोश ग्रन्थ भी स्वोपङ्गयीकासहित हो जो आचार्य हेमचन्द्रके समक्ष था । कविके आश्रयदाता महाभात्य भरत । पुष्पदन्तने दो आश्रयदाताओका उद्ेख किया है, एक भरतका और दूसरे नन्नका । ये दोनों पिता-पुत्र थे ओर महाराजाधिराज कष्णराज ( तृतीय ) के महामात्य । कृष्ण रा्कूट वंशका अपने समयका सबसे पराक्रमी, दिखिजयी और अन्तिम सप्राटू था । इससे उसके महामात्योकी योग्यता और प्रतिष्ठाकी कल्पना सहज ही की जा सकती है । नन शायद अपने पिताकी मृतयुके बाद ही महामाल इ होगे । यद्यपि उस काठमे योग्यतापर कम 'प्यान नहीं दिया जाता था; फिर भी बडे बडे राजपद प्रायः वानुगत होते ये। मरतके पितामहका नाम अण्णस्याः पिताका एयण ओर माताका श्रीदेवी था । वे कोण्डिन्य गोत्रके ब्राह्मण थे । कहीं कहीं इन्हे भरत भ भी किला है । भरतकी पत्नीका नाम ठुन्दव्वा था जिसके गर्भे नन उत्पन इए ये | भरत महामात्य-वंरामे दी उत्पन इए ये परन्तु सन्तानक्रमसे चढी आई हुई यह ठकष्मी ( महामात्यपद ) कुछ समयसे उनके कुरुते चटी गई थी जिसे उन्होने बडी भारी आपत्तिके दिनेमिं अपनी तेनखिता ओर प्रमुकी सेवासे फिर प्रात कर ख्या था | भरत जैनधर्मके अनुयायी थे । उन्हे अनवरत-रचित-जिननाथ-भक्ति और जिनवर- समय-प्रासाद-स्तम्भ अर्थात्‌ निरन्तर जिनभगवानकी भक्ति करनेवाले और जैनशासनरूप महक स्तम्भ ठा है । कृष्ण तृतीयके ही समयमे ओर उन्हौके सामन्त अरिकेसर्राकी छत्रछायामे बने इए नीतिवाक्यासृतमें अमात्यके अधिकार बतलाये गये है--आय; व्यय; स्वामिरक्षा ओर राजतत्रकी पुष्टि । ५ आयो व्ययः स्वामिरक्षा तंत्रपोषणं न्चामात्यानामधिकारः । '' उस समय साघ्रारणतः रेबेन्यू-मिनिर्टरको अमात्य कहते ये । परन्तु भरत महामाय होगे । इससे माढम होता है कि वे रेवेन्यूमिनिस्टरीके सिवाय राज्यके अन्य विभागोका भी काम करते थे । राष्ट्रकूट-काठमें मन्त्रीके ठिए शासज्ञके सिवाय शलक्ञ भौ होना आवश्यक था; अयात्‌ जरूरत होनेपर उसे युद्ध-क्षेत्रे भी जाना पड़ता था । एक जगह पुप्पदन्तने ठिखा भी है कि वे वछमराजके कटकके नायक अर्थात्‌ सेनापति न १ महमत्तवेखधयवड गदीर ( सहामात्यवेशघ्वजपरगभीरः ) । २ तीनापदिवसेषु वन्धुरहितेनेकेन तेजस्विना सन्तानक्रमता गताऽपि हि र्मा ङ प्रभोः खेवया 1 यस्याचारपदं वदन्ति कवयः सोजन्यसत्यास्पद सोऽय श्रीभरतो जयत्यतुपम. कले कटो साम्प्रतम्‌ ॥ -म० सन १५




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