उपमा कलिदासस्य | Upama Kalidasya

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Upama Kalidasya by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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उपमा कालिदासस्य १७ क्रामाति वेला लवणाम्बुरश्ञे- धारानिबद्धेव कलकरेखा ॥1 यहौ शब्दातकार दौ जो ककार उदी है, उसये समुद्र का वणन सा्येक हो उठादहै1 श्राकारके वाद 'झा'कार के द्वारा समुद्र बी सीमाहीन विपुलता को जसे ध्वनि द्वारा हो मूर्त कर दिया गया हैं । कुमारसभव में उमा का वर्णन करते समय कवि ने कहा है--'सब्चारिणी पल्नविनी लतेव '' उद्भिन्नमौवना उमा के लावण्य की कमनीयता कुद न्द म, कुछ चित्र में भ्रौर कुछ ध्वनि की कमनीयता मवविने प्रस्फुटित करने की चेप्ठा को है। द्ौर ध्रमिनन्य कवि जहाँ मेबत्रियुन्मयी घनान्वकारमयी भयकर रजनी का चणन करते हैं विद्‌ होधितिभेदभीदणतम स्तोमान्तरा सन्तत इयामाम्भोधररोधसकटवियदूदिप्रोदितज्योतिष ॥ खयो ऋानुमितोपषण्ठतरव पुष्णन्ति गम्भीरताम्‌ श्मासारोदकमत्त-कोटपटली-ववारणेत्तेरा रात्रय ॥ वहौ गम्भीर श्रन्यकारमयी रजनी कौ भीपणता, उसम उठने वालि त्रुफान फी प्रचण्डता मानो दाब्द ध्वनि के द्वारा ही मूर्त हो उठी है । ज़रा सोचने से यह साफ़ दिखलायी पढेगा कि यहाँ झब्दालकार भी केवल कटककुण्डलादिवदु ही महीं है, साधारणं शब्द एव्र प्रये दवारा जो प्रकट नही हो सकता, सगीत द्वारा, मकारं द्वारा, उसी को प्रकट क्या गया । भ्रभिन्यजना कै इस कला-कौशल श्लो वेष्टा नही लाना पडता! क्वि कौ सचतेतनता के मीतरही स्वेदा उसकी उत्पत्ति होती है, एेमी वात भी नही कदी जा सक्ती, “भोल नाष रूपी रस-सत्ता वे भीतर ही जो स्यन्दनमयी भ्रभिव्यंजना शक्ति निहित रहती है, यह समस्त कला-कौपल उस दाकि को विलास-विभूति-मात है । माव थी भूदमता एवं भनिवं चनीयता के भीतर ही छिपी रहती है इन सब वत्ता-वीशलों थी प्रयोजनीयता; झमिव्यजना के समय इसीलिए मावे स्वय ही इनका सग्रह बर लेता है। दाब्दालवार जहाँ भाव-प्रदागा वी स्वध्दद गति मे मीतर ही अति स्वाभाविक नियम से नहीं भ्राता है वहीं वह एक कृतिम चावविक्य मात्र रह जाता है, यहाँ प्रयोजन वी भपेसा घायोजन श्रविव रटतादै! कवि जय- देवने जरां नेषंमेदुरमम्यर वनयुव दयामास्नमाचदरमं ' प्रभृति द्वारा घन-मेष- जालं से समाव नमोमण्टय एव दयामल तमात-तर-गभरूह ते श्रन्वदारमय वने- भूमाय षे वरान द्वारा वाव्यारम्म बिया है, वहाँ उनके शब्द वी भकार सार्थक है, विन्तु उदोनि हो जहाँ वस सवर्न वरते हुए लिखा




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