हमारे त्योहार और उत्सव | Hamare Tyohar Aur Utsav

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Book Image : हमारे त्योहार और उत्सव  - Hamare Tyohar Aur Utsav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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किन्तु गुरु सुनाते ही रहे और बार-बार सुनायां-- तदपि कहहि गुरु बारहि बारा । समुझि परि कछू मति अनुसा रा ।। कुछ दिनों के बाद इनकी शादी दीनबन्धु पाठक की कन्या रत्नावली से हुई । कहा जाता हैं कि ये अपनी स्त्री पर बहुत आसक्त थे 1 एक बार इनकी स्त्री इनसे बिना पूछ ही मायके चली गई । पत्नी-विरह उनसे नहीं सहा गया । वे भी ससुराल चेल दिए । वहाँ पर पहुंचने पर उनकी पत्नी रत्नावली ने यह दोहा कहा--- लाज न लागत आपको दौरे आयहू साथ घिक-घिक ऐसे प्रेम को कहा कहाँ मैं नाथ । अस्थि-चर्ममय देह मम तासे जेसी प्रीति तैसी जो श्री राम महूँ होति न तो भवभीति ।। कहा जाता है कि स्त्री की इस फटकार को सुनकर इनके ज्ञान-चक्षु खुल गए और ये प्रयाग आकर साधू हो गए । इन्होंने लिखा है कि--- हम तो चाखे प्रेम-रस पत्नी के उपदेदा । देशाटन करते हुए काशी से अयोध्या आए । यहीं तुलसी चौरा पर इन्होंने रामचरित- मानस की रचना की । गोस्वामी जी ने अपनी पत्नी से विरक्‍त होकर देश के विभिन्‍न तीर्थों का तीर्था- टन किया । कहा जाता हैं कि उन्होंने आसेतु मानसरोवर तक सहस्रों मील की पैदल यात्रा की । इस प्रकार उन्होंने अनेकों तीर्थों के दर्शन किए । इनकी रचनाओं के आधार पर यही प्रतीत होता है कि उनका चित्त विशेष रूप से चित्रकूट में रमा था । ती्थ-यात्रा के सिलसिले में वृन्दावन भी पहुंचे । वहाँ पर इन्होंने कृष्ण की मूर्ति देखकर यह दोहा पढ़ा--- का बरनों छवि आज की भले बने हो नाथ । तुलसी मस्तक तब नव घनुष-बाण लेउ हाथ ॥। इस दोहा को सुनकर कृष्ण ने ऐसा ही किया यह भी संदिग्ध है । चित्रकट के घाट पर राम का इन्होंने साक्षात्कार भी किया था । इसका प्रमाण इस दोहे में लगता है-- चित्रकूट के घाट पर भई सन्तन की भीड़ । तुलसीदास चन्दन घिस तिलक लेत रघुबीर ॥। पहल गोस्त्रामी जी हनुमान फाटक पर रहा करते थे किन्तु मुसलमानों के उपद्रव से गोपाल मन्दिर में चले गए । वहाँ गोसाइयों से विरोध हो जाने पर अस्सी- घाट आकर रहने लगे थे । जीवन के अन्तिम दिनों में ये वात रोग गठिया से पीड़ित रहे । इस क्लेशा में इन्होंने हनुमान बाहुक की रचना की । जान पड़ता है इससे इनकी पीड़ा कुछ दान्त हो गयी थी क्यों कि उन्होंने लिखा है--- आये हुते तुलसी कुरोग रडढ़ राकसीनी । केसरी किशोर राखे वीर वरिधाई है । इतना होने पर भी इससे रोग की पूर्ण निवृत्ति नहीं हुई । इन्होंने पुन सात छन्दों 14




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