सर्वोदय तीर्थ | Sarvoday Thirth
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
91
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( १६ )
ष्टि की श्रपेक्षा वह् सामान्य जीव तत्तव (आत्मा ) ही उपादेय है ।
उसे न जानने से श्र उसमें ही श्रपनापन न मानने से ही आत्मा
वहिराह्मा (शभ्रज्ञानी ) वना रहता है । उसे जान लेने से श्रौर उसमें ही
श्रपनापन मान लेने पर वह ग्रात्मा अ्रन्तरात्मा (ज्ञानी) वन जाता है;
तथा उसमें ही समग्रत: लीन हो जाने पर वही श्रात्मा परमात्म दशा
प्राप्त कर लेता है ।
शर्त: दृष्टि की श्रपेक्षा तो उपादेय एक सामान्य जीव तत्त्व ही है,
किन्तु प्रगट करने की दृष्टि से अन्त रात्मा श्रौर परमात्मपद उपादेय हँ ।
वहि रात्मापनसवेयाहिय टी है । उस परम उपादेय ज्ञान-दशेन स्वभावी
एक शुद्ध निजात्म-तत्त्व में उपयोग को स्थिर करने से, उसमें लीन होने से,
स्वं विकारी भावो का श्रभाव होकर श्रनन्त श्रानन्दमय मोक्षदशा
प्रगट होती है ।
श्रजीव तत्व
ज्ञान-दर्शन स्वभाव से रहित तथा श्रात्मा से भिन्न समस्त द्रव्य
श्रजीव हैं, किन्तु जीव के संयोग में रहने वाले श्रजीवों के समभने में
विशेष सावधानी की श्रावश्यकता है ।
जिसमें जीव का संयोग नहीं है ऐसे भ्रजीव पदार्थ जैसे - टेविल,
कुर्सी, कलम, दवात श्रादि को तो श्रजीव सभी मान लेते हैं; किन्तु
जीव के संयोग में जो ्रजीव पदार्थ होते हैं उन्हें प्रायः जीव ही
मान लिया जाता है। जेसे - हाथी, घोड़ा, गाय, मनुष्य झादि को जीव ही
कहा जाता है - जवकि हाथी, घोड़ा, गाय, मनुष्य पर्याय; झ्रसमानजाति
पर्याय होने से जीव भ्रौर पुद्गल (श्रजीव) का संयोग है । भेद-विज्ञान
की हृप्टि से विचार वारने पर हाथी, घोड़ा व मनुष्य का शरीर - स्पर्श,
रस, गंध, वणं वलि पुद्गल से निमित होनेसे अ्जीव है श्रौर उस
शरीर में विद्यमान ज्ञान-दर्शन स्वभावी श्रात्मा जीव है । देह श्ौर
* श्रहूमिवको पचु युद्धो सिन्ममयो राणदंसणसमग्यों ।
म्हि द्िग्रो तच्चित्तो सर्व्वे एए खयं रेमि॥
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