सर्वोदय तीर्थ | Sarvoday Thirth

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Sarvoday Thirth by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १६ ) ष्टि की श्रपेक्षा वह्‌ सामान्य जीव तत्तव (आत्मा ) ही उपादेय है । उसे न जानने से श्र उसमें ही श्रपनापन न मानने से ही आत्मा वहिराह्मा (शभ्रज्ञानी ) वना रहता है । उसे जान लेने से श्रौर उसमें ही श्रपनापन मान लेने पर वह ग्रात्मा अ्रन्तरात्मा (ज्ञानी) वन जाता है; तथा उसमें ही समग्रत: लीन हो जाने पर वही श्रात्मा परमात्म दशा प्राप्त कर लेता है । शर्त: दृष्टि की श्रपेक्षा तो उपादेय एक सामान्य जीव तत्त्व ही है, किन्तु प्रगट करने की दृष्टि से अन्त रात्मा श्रौर परमात्मपद उपादेय हँ । वहि रात्मापनसवेयाहिय टी है । उस परम उपादेय ज्ञान-दशेन स्वभावी एक शुद्ध निजात्म-तत्त्व में उपयोग को स्थिर करने से, उसमें लीन होने से, स्वं विकारी भावो का श्रभाव होकर श्रनन्त श्रानन्दमय मोक्षदशा प्रगट होती है । श्रजीव तत्व ज्ञान-दर्शन स्वभाव से रहित तथा श्रात्मा से भिन्न समस्त द्रव्य श्रजीव हैं, किन्तु जीव के संयोग में रहने वाले श्रजीवों के समभने में विशेष सावधानी की श्रावश्यकता है । जिसमें जीव का संयोग नहीं है ऐसे भ्रजीव पदार्थ जैसे - टेविल, कुर्सी, कलम, दवात श्रादि को तो श्रजीव सभी मान लेते हैं; किन्तु जीव के संयोग में जो ्रजीव पदार्थ होते हैं उन्हें प्रायः जीव ही मान लिया जाता है। जेसे - हाथी, घोड़ा, गाय, मनुष्य झादि को जीव ही कहा जाता है - जवकि हाथी, घोड़ा, गाय, मनुष्य पर्याय; झ्रसमानजाति पर्याय होने से जीव भ्रौर पुद्गल (श्रजीव) का संयोग है । भेद-विज्ञान की हृप्टि से विचार वारने पर हाथी, घोड़ा व मनुष्य का शरीर - स्पर्श, रस, गंध, वणं वलि पुद्गल से निमित होनेसे अ्जीव है श्रौर उस शरीर में विद्यमान ज्ञान-दर्शन स्वभावी श्रात्मा जीव है । देह श्ौर * श्रहूमिवको पचु युद्धो सिन्ममयो राणदंसणसमग्यों । म्हि द्िग्रो तच्चित्तो सर्व्वे एए खयं रेमि॥




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