श्री आचारांग सूत्र | Shri Aacharang Sutra

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Shri Aacharang Sutra by चिमनलाल चकुभाई - Chimanalal chakubhaee

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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2 [+ ^ ^ चना ए ^^ ^ ^~ ~^ ^-^ लोफविजय [११ ९८-५९^^^ नल ५० ा (4८५५ क न आदि मे प्रीति रखने चाले तथा खियो म श्रव्यन्त अ्रासक्ति चाले उन लोगो को ऐसा ही दिखाई देता हैं कि यहां कोई तप नहीं है, दस नहीं है आर कोई नियम नहीं है । जीवन और लोगो की कामना वाले वे मनुप्य चाहे जो बोलते हें रौर इस प्रकार हिताहित से शूश्य बन जाते हैं । [ ७४] ऐसे मनुष्य खियो से हारे हुए होते है 1 वे तो ऐसा ही ही मानते है कि ख्त्ियों ही सुख की खान है । चास्तव में तो वे दुख, सोद, ल्यु नरक श्र नीच गति (पशु) का कारण हैं । [ ८४ ] काम भोगो कै दी विचार मे मन, वचन शौर काया से मञ्च रहने वाले वे मनुस्य श्रपने पास जो ङ्ध धन होता है, उसमें श्रत्यन्त श्रासक्तं रहते ह शौर द्विप (मनुष्य) चौपाये (पशु) या कसी भी जीव का वध या झ्राघात करके सी उसको ब्रढाना चाहते हैं । [८०] परन्तु मजुप्य का जीवन श्रत्यन्त श्रत्प है । जब श्रायुप्य मृत्यु से घिर जाता है, तो शंख, कान आदि इन्द्रियों का चल कम होने पर मनुष्य सूढ हो जाता है । उस समय श्रपने कुटम्वी भी जिनके साथ वद्द बहुत समय से रहता है उसका. तिरस्कार करते हैं । चुद्धावस्था में इंसी, खेल, रतिविलास ओर श्रृंगार श्रच्छा नहीं. मालुम होता । जीवन श्र जवानी पानी की तरह चह जाते हैं, । उस समय चे प्रियलन मजुग्य की मौत से रहक्ता नहीं कर सकते ! जिन माता पिता ने बचपन सें उसका पालन-पोपण किया था और चडा होने पर वह उनकी रक्षा करता था । वे भी उसको. नहीं बचा सकते । [ दद६-६५ ]




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