आधुनिक समीक्षा | Adhunik Samiksha
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
26 MB
कुल पष्ठ :
331
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)२ आधनिक समीक्षा
कि के |
शुक्ली के कव्य-पम्कन्यौ विक्रार भारतीय हैं। उन्होंने अपने सैद्धान्तिक
विवेचन के लिए भारतीय श्रलकार-शास्त्र को ही उपजीव्य बनाया है । कहीं-कहीं पर
पार्रचात्य विचारधारा का भी उपयोग किया है । लेकिन शुक्लजी ने कहीं पर भी
इन दोनों परम्परां के सिद्धान्तों को ज्यों-का-त्यों ग्रहण नहीं किया है । उनके गम्भीर
भ्रौर मौलिक चिन्तन की छाप सर्वत्र हो स्पष्ट है ।* उन्होंने दोनों परम्परात्रों के
सिद्धान्तों को श्रपने गम्भीर श्रघ्ययन, गुढ़ चिन्तन श्रौर तक द्वारा श्रात्मप्ात् कर लिया
है। वे सब उनके भ्रपने हो गये हैं। जहाँ पर श्राचा्यों में ऐकमत्य नहीं है, उसका
निरूपण भी उन्होंने निर्भीकता पुर्वक किया है । इस प्रकार उनका सैद्धास्तिक निरूपण
मौलिक ही है । हाँ, उनमें से श्रघिकांश सिद्धान्तों को भारतीय श्रौर पाध्चा त्य ग्राचर्यों
का समथेन भी प्राप्त है । पाइचात्य सिद्धान्तों का उपयोग तो अ्रघिकाँदत: अपने मत
को पुष्टि के लिए ही हुभ्रा है; पर भारतीय सिद्धान्तों की व्यारूपा हुई है, इसलिये
उन्हीं को उपजीव्य कहना चाहिए, पाइ्च।त्य को नहीं । पाइचात्य सिद्धान्तों का उप-
योग करते हुये भो उन्होंने श्रपनी भारतीय प्रकृति को अवहेलना नहीं की है।
जो सिद्धान्त हमारी १९०५९ के अनुकूल हैं. उन्हींको झुक्लजी ने श्रपनाया है,
शेष की तो उन्होने प्रालोचना की है। शुक्लजी ने भारतीय और पाइचात्य
सिद्धान्तो के मौलिक अ्रेन्तेर.को खुब समभा है ! इसलिए वे पाइचात्य साहित्य-
शास्त्रियों की तरह वादों का समर्थेत नहीं कर सके । वे कविता श्र ऑ्रालोसना को
वादों में घसीट ले जाना अनुचित समभते हैं । वे ब्रेडले आदि कलावादियों प्रौर प्रभाव
वादियों कै विचारो से सहमत नहीं हो सके । लेकिन मूल्यवादी रिचङ्स के विचार्यो
को उनका समर्थन प्राप्त है ' अनेक स्थानों पर श्रबरफ़ोभ्बे की विचारघारा भी शुक्ल
जो के चिन्तन के श्रपुरूप प्रतीत होती है । इसका एकमात्र कारणा यद़ी है कि
पाङ्कात्य श्राचार्या में कुछ व्यक्तियों के चिन्तन में थोड़ी बहुत भारतीय विचारों की
मलक है । शुक्ल जी ने ऐसे कुछ श्रालोचकों के मत शभ्रपनी भान्यतातओं के समर्थन में
उद्धृत किये हैं । केवल इसीके प्राधार पर पारचात्य ्रनुकरण का प्रारोप ब्रनुचित है ।
इधर युरोप में कला, कला के लिए सिद्धान्त का बहुत जोर रहा
है। इसके कारण काव्य श्रौर श्रालोचना नवीन दिशाओं में प्रेरित हुए । उनका
जीवन कै मूल्यों से कोई सभ्बन्ध नहीं रह गया । शुक्ल जी इसी बात का निरूपणं
करते हुए कहते हैं: “इस प्रवाह के कारणा जौवन श्रौर जगत की बहुत-सी बातें,
जितका किशी काव्य के मुल्य-निणंय में बहुत दिनों से योग चला श्रा रहा
था, यह कहकर टाली जाने लगीं कि ये तो इतर वस्तुए' हैं, शुद्ध कला-क्षेत्र के
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