जैनेन्द्र के विचार | Jainendra Ke Vichar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१७ भणेता है इस अरथमे वह निष्प्राण, जविनसे भिन्न, असंबद्ध ओर विभक्त, अथवा वासना-सेवी कभी नहीं दो सकता । सात्यकी सीमाम ओर जिभ्दारियोको भली भति पिचानकर द जैनेन्रने साहित्य लिखा दै, यह्‌ कहना अयुक्त न होगा । उनके साहित्यमे सबसे प्रथम ओर विशेष गुण, उनकी भाव-रम्य सहज वार्तालापदोर्लीके अतिरिक्त, उनकी विचार-प्रवर्तकता है। उनके विचारोपर चाहे जो आरोप हम करें, पर यह तो हम कदापि कह ही नही सकते कि वे पाठक या श्रोताके मनमें विचार-ठद्वरियों नहीं उठाते । उनकी छेखनीकी क्षमता इसीमे दै कि वह विचारोको ठेरुती, कुरदेती जर अगि बढाती है । एक अच्छे छुखकते प्रामाणिकता ओर विचारर्वतकतासि अधिक कोई मोग करना भी भूल है । पश्चिमी साहित्य पढ पढ कर हमारे ' दष्टिकोणभ॑ कुछ इस तरहकी एक खराबी पैदा हो गईं है कि हम उसी साहित्यको ज्याददद उत्कट मानते हैं जो मत-प्रचारसे भाराक्राम्त हो | जेंसे अप्टन िक्ेयर या एसे ही छलछखाती शेटी ओर भावोके अन्य अन्थकार । भारतीय आद ऐसी भाव-विषमताके आवशस पैदा हुए या नसेमे ज्वार-उभार पैदा करनेवाले साहित्यसे सर्वथा विभिन्न रहा है । इमारे यहाँ भावोका विनिमय, विचारोका आदान-प्रदान, कभी एक दूसरेको उत्तेजित करनेके लिए नहीं दोता । वेसा लेखन या भाषण असंभ्य अनेतिक माना जाता था । हम भारतमे साहित्यको शांति और सतोषके प्रसारका एकमेव साधन, रस सृष्टिका प्रकार, मानते आ रे हैं. जैनिन्द्रक लेखेंमिं विचार-प्रवर्तकता है, विचारोत्तेजना नहीं । जैनेग्द्रका दूसरा विशेष गुण उनकी प्रश्नोत्तर्तील दैलीमें है । वहीं जैंनिन्द्रकी वास्तविक सुख्झी हुई मानसिक प्रभुताके सच्चे दर्गन होते हैं । व्यक्तिशः जैनिन्द्रकी विधारकतासे मेरी आस्था ऐसे दी खूब निषिद विवादेकि बाद हुई है। वे विवादोमे , शंका और सब प्रकारकी परित्थितिकी अशान्तियोंके मध्यमें अडिग रद सकते हैं, इसी गुणको मैं कछाकारकी अमर साधनाका प्रतीक मानता हूँ । जैनेन्द अविचलित रहनेवाले साहित्यकार हैं । इसीसे हम करेंगे कि उनका साहित्यमाव विरलतरमे विरल्तम हाता जा रहा है । भाषा और देलीसंबंधी बातोपर जब हम आते हैं तब उनकी विशेषता बिकुल साफ ओर अङग नजर आ जाती है । वे भाषाको कभी बनाने नहीं बेठते। ` ज़्यादद बनावटका अये है बिगाढ़ । जैनेन्द्रका वेशिप्टय है कि उनकी अनर्सेवारी




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