जौहर | Jouhar

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Jouhar by श्री श्यामनारायण पाण्डेय - Shri Shyamnarayan Pandey

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ने पिघल हृश्रा राँगा डाल दिया हो । वह तिल्मिला उठी | मौत के डर से नहीं, रावल की बिरहद-बेदना से | महारानी पश्चिनी भी श्र को हराकर निश्चिन्त नहीं दो गयी थीं बल्कि रात-दिंन उसके आक्रमण की प्रतीक्षा ही कर रही थीं} वह अपने पति के सुख से उसके स्वमाव को सुन चुकी थी, उसकी पशुता से अनयिन्न नदीं थी गौर न उसकी निदंयता से अपरिचित दही } चह जानती थी कि एक न एक दिन उसका आक्रमण होगा जो चित्तोड़ की नींव तक हिंला देगा | वह सिहर उठती थी, ईश्वर की शरण में जाती थी और रावल का विरह सोचकर कराह उठती थी, किन्तु अन्तःकरण की प्रबछता उसके निर्मल मुखं पर शीशे के भीतर दीप की तरह झलकती यी-- स्पष्ट; अविकार ओर निमंल | रात्रि का दूसरा प्रहर वीत रहा था, तरु-तरु पात- पात में नीरवता छायी थी, नियति तृणों पर मोतियों के तरल दाने बिखेर रही थी; कुहासा पड़ रहा था; चोद्‌ के साथ तारे छिप गये थे, मानो ऑआँचल से दीप बुञ्चाकर नियया-स॒न्दरी सो रद्दी थी--मौन; निश्वल और निस्तव्घ । चित्तौड्‌ के पूवं चित्तौड़ो नाम की एक छोटी-सी पहाड़ी है; दुर्ग से विल्छुरु सटी ददै । चित्तौड़ तीथ के यात्री जव कमी दशन के लिए उस पवित्र दुगं पर जाते =: है तव एकदृष्टि उस पद्ाडी पर मी डाल लेते ड किन्त दूसरे ही क्षण श्रणासे मुँद फेर लेते हैं क्योंकि उनके सामने सतसौ वप्र पूर्वं का इतिहास नाचने लगता है--सी सौ रूपों से । अलाउद्दीन की चशंसता, राजपूतों का बलिदान और जोंहर की घघकती आग“ ~ | दशन के वाद लय यात्री चित्तौड़ के चक्करदार रास्ते से : उतरने लगते दै तच उनकी पवित्र भावनाओं के साथ पोडा सटी रहती है-- जीवन के साथ मृत्यु की तरह 1 उस अन्ध रजनी मेसारी खषिसो रदी थी, किन्त २.१




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