जैन धर्म में देव और पुरुषार्थ | Jaindharm Mei Dev Aur Purusharth

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अध्याय पहला | १३. ण्वि 255 भो दी, नकेल स + ०५. पोः ठत के. के. «के, . के, .. के... %”” क, २, शुः ^ पक. के, प के, के.” ५. के. 0. ॐ हैं, उनकी यह क्रिया हमारे बुद्धिपरवक प्रयलके विना ही होती रहती हे । वीयं इनका अतिम फल या सार है । उस वीयकी बदौलत या वीर्यके फलसे हमारा शरीर व हमारे झारीरके अंग उपांग काम करते रहते हैं । जैसे स्थर शरीरम स्वयं फल होजाता है वैसे सूक्ष्म कामेण णरीरमें स्तरय्ं फल होजाता हे । कुछ सोर्गोका यह मत है कि कोई ईश्वर पाप या पुण्यकर्मका फल देता हे कमे स्वयं फू नहीं देसक्ते क्योंकि इश्वर फलडादा कम जड है । इत्च वातप विचार किया जावे तो नरी । यह वात ठीक समझमे नहीं आती है । ईश्वर अमूर्तीक जरीर रहित हे, मन वचनं काय रहित है, मनके विना यह किसीक पाप पुण्यक सन्वन्धमं विचार नहीं का सक्ता, चचनकै विना दृर्ीको आज्ञा नहीं दसक्ता. कायके विना स्वयं कोई काम नहीं कर सक्ता है । वह सल्यदर्णी है, रागद्वेष रहित है । वह यदि जगतके अपृूव जालम पढ़े तो वह स्वय संसारी होजावे, विकारी होजावे। कुछ लोग पाप पुण्य कमका सेंचय भी नहीं मानते है, उनके मतसे इंधरको ही सब प्राणियोंकि भले दुरेका हिसाव रखना पड़ता है। अमूर्तीक व गरीर रटित ईश्वरसे यह काम बिछ्कुल संभव नहीं है । यह सब्रका ढफ्तर केसे रख सक्ता है, यह बात कुछ भी समझमे नहीं आती है । ढोनों ही बातें ठीक नहीं है कि पाप पुण्य कर्मकरा सेचय होनेपर वह ईश्वर उनका फरू मुगतावे या संचय न होनेपर ही वह ईश्वर सुख दु ख पेदा करे । ईश्वरमें दयावानपना भी व स्वक्तिमान- पना मी माना जाता है, तब ऐसा ईश्वर जिन ॒जगतके प्राणिर््ोका




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