हिन्दी विश्वकोश [भाग 22] | Hindi Vishvakosh [Part 22]
श्रेणी : संदर्भ पुस्तक / Reference book
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
49 MB
कुल पष्ठ :
770
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)उततापु्वेद १५
कषाय, उष्ण सौर कफ, अर्शो ( ववासीर ), ष्णा, त्रायु,
उद्र, गुम, अतोसार सौर जणदोषनाशक ३ 1
(वु) बृक्े भस्त यश्य । 8 सम्मड़ा । ५ सम्लवेत |
व क्तायुर्वेद (सं° पुर) चक्षस्यायुवदः। च, कका चिक्कित्सा-
शांख । मनुष्योंकी तरह चर्यो दिक्ृति आदि
होने पर मौषघ ढतरा उनकी भी चिकिट्सा को लाती है ।
चदद्संदितामें बक्षोंके रोपने, रखने और चिकित्सा
आदिका विपथ इस तरद लिखा है--फिसी मी जठा-
शयके च,क्ष न रदनेसे वह मनोर दिलाई नही देता, इस -
लिये जढाशपके निकर वर्ष आदि छगाना उचित है।
लखन मिट्टो सब तरदके व,क्षोंके लिये दितकारो है! इसमें
तिछ वोना चादिये। अरिष्ट, अशोक, पुन्ना, शिरोष
सैर प्रियं भादि दृत मङ्लज्नक है, इससे इनको
गुदके निकट या दारमें लगातों चाद्ये! कदल
(पनस), अशोक, फेछा, जामुन, भनार ( दाड़िम ); दाध्ा
( संगूर ), पालोदत्, बीजपूरक और भतिमुक्तक, इन
सब श्लोका काण्ड य। मूर योवर द्वारा छेपल कर रोपण
करना चाहिये । सथवा यत्नके साथ मूं कारं कर
केवल सुकन्ध ह्ोको रोपना उचित है! जिन वक्षोंको
शाजांपे' नहीं हैं, उनको शिशिर ऋनुमें, शाला पैदा रेने
पर हिमागममें और सुन्दर सकरधसम्पर्न वक्ष वर्पाञचतु-
मे किसी ओर भ्रति रोपण करना चादिये । घृत, उशोर,
तिल, मशु, चिड्ङ्ग, कोर मीर गवर दास पूलक्ते स्कन्ध
तक ढेप कर उनका पुनः रेपना भौर संक्राप्रिण श्ना
चाहिषे ! ईस तरह रोपण केसे बश्च पनप जता है
ग्रीष्मकाछम सायं मीर प्रातभ्कारे, शीत या जाड़ में
दिनके मध्यभागे मौर वरसातों सिट्टी सुख जानेसे
रपे हद वक्षे जरु डारना चाद्ये । जामुन, वेत
वाणीर, कद्व, उदुस्वर ( यूर ), मजु न, वीजपुरक,
खुहीका, रच, दाडिम, वज्ञ, नक्तमाक,
पनस, तिमिर गौर याघ्रातक, ये १६ प्रहारके
उक्ष अनूप नामे विद्यात दै । उक्त वश्च २० दायको
दूरी पर रोपण करनेसे उत्तम, १६ दाथकी दूरी पर मधम,
१२ हाथको दूरी पर शेपित दोनेसे निकृष्ट होते है ।
ज च्च श्छ कम दूरौ पर रेपे जति है, वे परसपर
स्पा तथा मूलं मिश्रित दे! जनेके फरण स्म्य
फल नहीं देते । शीत, दाव सौर आतप आदि द्वारा
भो चक़ॉको रोग होता हैं। इससे उनके पत्ते पीछे
मौर पततम इसकी दब द्धि नहीं दोतो और शालाशोप और
रसस्राव होता रहता दहै। पडे शख दारा इनका
विशोधन कर विड, घृत सीर पङ्क ( पांक ) दासा प्रेय
कर क्षीरजछसें सिंचना चाहिये, जिस गक्षका फल नष्ट
दो जाता है, उसकी जड़मे कुछथो, उड़द, सू'ग, तिल और
शीतलं जसे सिंचनेसे उसके फल और पुष्पफी व.द्धि
दोती हैं।
बकरी और भे'इकी चिछ्ठाका च्चूणे दे आढक, तिल एक
ऑढ्क,” शक्त, एक प्रस्थ और सवं तुल्य परिमाण
योमांस, ६४ सेर जलमें अच्छी तरह पश षित कर
घनस्पर्ति, बल्ली, गुद्म गौर लतादिकी जड़कों लिंचना
चाहिपे । इससे फल मी मधिक छगता हैं ।
किसी वीज्ञको दूश दिनों तक दू्घमे साधित्त कर पीछे
हायते घो खगा कर॒ मलने और पोछे गेवर् वहत वार
रखने-तथा सूझर और दरिणके मांसका विशेषरूपसे
खुगंधित करना चाहिये | इसके वाद उसे मछछी सीर शकर -
का चसासमन्वित कर मिट्टोमें गाइना या रोपना चाहिये ।
धीर्संयुक्त जल द्वारा जपसेचित दाने पर यह कुषम
युक्त दोगा।. जौ, उड़द और तिलचूर्ण, शक्तू, और
पूतिमांसके ज्लसे खिंबन और दरदोसे . घुपित होनेसे
इमली चक्ें फल निकछ आते हैं। वन्यास्फेपत, घाली,
धव मीर वासिकाका सूर भौर पलाशिनी, वेतस, सूर्यं.
वही, श्याम अतिमुक्त फ भौर सटमूली-ये सव कपिर्थ
बक्षमें फल उत्पन्न करनेके उपादान हैं । शुभ नक्षलमें
बध्चोंकों रोपना चाहिये । हिणी, उत्तरफदगुनो, उत्तरा-
षाढा ओर उत्तरमाद्रपद्, सूगश्िरा, चिल्ला, भलु-
राधा, रेवती, भ्रूछा, विशाला, पुष्वा, श्रवणा, सप्रिनी
और, दस्ता--इन्टीं सब नक्षतोंमें च & रोपना उचित
हैं। ( इदतुसं० प्र अ० )}
अननिपुराणमें लिखा है, कि भवने उत्तर पुश्, पूर्य
सोर चट, दक्षिणम आश्न और पश्चितमें भश्वत्य व क् रोपण
करसे कस्याणकर हेता दै । यूहके निकट दृक्षिण
भोर उत्पन्न कर्ष म सवके ल्थि मङ्गलदायक दै । युदक
समीप उद्यान रखना उचित है। द्विन और चन्द्रकी
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