गृहस्थ - जीवन - रहस्य | Grihasth Jivan Rahasy
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
218
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about श्री महात्मा नारायण स्वामी जी - Shri Mahatma Narayan Swami Ji
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)गृहस्थाश्रम के निर्माता ६५
यस्मात् त्रयोऽप्याश्रमिणो दानेनान्ने चान्वहम् । गृहस्थेनैव
धायन्ते तस्माञ्जेष्ठाश्रमो गृही । ( मनु० ३। ज).
अर्थात्- जिस कारण तीनों आश्रमो वालों को दान
और अन्न से यृहस्थ हो प्रतिदिन धारण करता है, इस
से गददस्थाश्रम बड़ा है ।
यथा वायु समाश्रित्य बतन्ते सब जन्तवः । तथा गहस्थमाभित्य
वत्तन्ते सवं श्राभ्रमा; ( मनु० ३ । ७७ )
जेसे संपूण जीव वायु के आश्रय से जीते हैं, वेंसे
गृहस्थ के आश्रय से सवर आश्रम चलते हैं।
गृहस्थाश्रम के उपनिषद् मं एक जगह अ्लङ्क(र के इङ्ग
निमीता से गाहस्थ्य शरीर को उतना बतलाया है
जितना स्त्री और परुष दोनों मिल कर होते हैं । जब
उसके दो भाग क्यि-गये तो पति और पत्नी हुए ।
इसी लिये ये झआधे-आधे भाग ( पति+ पत्नी ) एक
दाने की दो दालों अथवा पूरी सीप के दो भागों
( आधे-आधे सीप) के सदृश हुए ।# भव इस का स्पष्ट
#१ सदेतावनास यथा खौ पर्मोसौ सं परिप्वक्ती, स
इममेवाऽऽत्मानं द्रेवाऽपातयतः ततः पतिश्य पत्नी चाभवतां,
तस्मा दिद्मधं बगल मिश्र । ( बृहदारण्य कोपनिषद् १।४।३। )
User Reviews
No Reviews | Add Yours...