सियारामशरण गुप्त | Siyaram Sharan Gupt
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
50 MB
कुल पष्ठ :
220
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)थे} श्रतएव उनकी यात्रा सफल, थी) अन्तिम दिन. चलने के पूर्व जब वे
बापू को प्रणाम करने गये तब वर्ह नन्दिनी नाम की एक बालिका को थपथपा-
कर उन्होंने उससे कहा--बेटी नन्दिनी, श्रव बापरू तेरा नाम खुशहाली रखने
जा रहे हैं। इसे सुनकर उनकी श्र मुष्टि प्रहार का अभिनय करते हुए
वाध दस पडे |
इन्दौर के साहित्य-तम्मेजन मैं भो वेवधौसेद्ीवापू केसाथ गयेथे।
भक् दिन वर्ह का कृषि-विभाग देखने भी गये । जहाँ खाद बनाया जाता थाः
वहां पर्हुचकर उन्हें ऐसा जान पड़ा, मानों हम नरक मैं द्रा गये हैं । उनका
कहना है, कई दिनों तक वहाँ की दुर्गन्धि हम लोगों के माथों में छाई रही ।
परन्तु बापू का एकबार नासा संकोच भी नहीं डुम्ना ! इन्द्ियों पर उनका
_ यह श्रधिकार अद्मुत था । इसी प्रसंग में उन्होंने एक घटना श्रौर भी सुनाई
थी | वहाँ सेठ हुकमचन्द जी ने वहुत-से लोगों को भाजन का निमंत्रण दिया
था । सबके लिए च.दी के थाल कटोरे झ्रादि तो थे ही, वा त्रौर बापू के
लिए सोने के थाल सजाये गये थे। जव वापू च्रपनी मंडली के साथ वर्ह
पहुचे तव दिखाई पड़ा सेटजी ससंभ्रम कह र्हैय श्रे लाच्नो रे! कत्त मे
-पविष्ट दोते-दोते वापू ने दसकर कदा--क्या सोफे पर विदाने के लिए खादी
इसी समय सचमुच एक संवक एक खादी का ठुकड़ा लिये वहाँ झा पहुंचा ।
सियारामशरण को लगा, एक शरोर इतना वैभव शरीर एक शरोर इकडे का ऊहा
पोट ! सेठजी के खादी बिछाने के पहले ही वापू मखमली सोफे पर बैठ गये
परन्तु भोजन उन्होंने सोने के थालमे स्वीकार नहींकिया) शरगव्या गीरा.
बहन को उस पर बेठाया गया । श्नन्त में सेठानीजी गुड परोसने राई । सेठ
हीरालालजी ने सियारामशरण से कहा--“'ये हमारी माताजी हैं ।” सबने
ग्रसन्नतापरूवक वह प्रसाद ग्रहण किया |
.. सियारामशरणु की इच्छा रही है कि कुछ वालको को लेकर उन्हें
स्वनात्मक शिक्षा देने के लिए एक छोटी-सी संस्था चलाइई जाय । इसके
लिए उपयुक्त स्थान की वात मी उन्होंने सोची । परन्तु उनकें स्वास्थ्य ने
साथ न दया] स्वतंत्रता प्राप्त होने के कुछ दिन पहले यहाँ के गणेशशंकर
हदय-तीथ का शिलान्यास करने के लिए कृपापूर्वक पं० जवाहरलाल॑ जी श्राये
थे | तब पंडितजी से भी उन्होंने 'कहा था कि कुछ युवकों को अपने श्रादर्शं
के झेनुरूप शिक्षित करने का समय श्राप निकाल सकें तो बड़ा श्रच्छा हो | पंडितजी
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