जैन शासन | Jain -shashan

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Jain -shashan by सुमेरुचन्द्र दिवाकर - Sumeruchandra Divakar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१३ था, किन्तु आभितजनोके रक्षणार्थं, तथा दुरष्यौके निग्रहार्थं अन्न रला दिके प्रयोगमे तनिक भी प्रतिबन्ध नदी रख था। अन्याये दमन निमित्त इनका भीषण दण्ड प्रहार होता था । भगवत्‌ जिनसेन स्वामी के श्दोमि इसका कारण यह था-- । ५प्रजाः दण्डधरामावे मासस्य न्यायं श्रयन्त्यमू: ॥” -मदापु° १६, २५२1 यदि दण्ड धारणम नरेश शोथिस्य दिखाते, तो प्रजामें मात्स्य न्याय ( बढ़ी मछली छोटी मछलियोंको खा जाती है, इसी प्रकार बलवान द्रवाय दुबल संहार होना मात्सय न्याय है ) की प्रवृत्ति हो जाती । ुशक षस्य जीवनमें असि, ईषि, वाणिज्य, शिवय मादि कर्मश विवेक पूर्वक करता है। आसक्ति विशेष न होनेके कारण वष्ट मोही, भशानी जीवके समान दोषका संचय भी नहीं करता । इस वैज्ञानिक युगके प्रमाववश शिक्षित वर्गमें उदार बिचारोंका उदय हुआ है और वे ऐसी धामिंक दृष्टि या विचारधाराका स्वागत करनेको तैयार है, जो तक भर अनुभवे अबाधित हो सौर जिससे आत्मामें शान्ति, स्पूतिं तथा नव चेतन।का जागरण होता हो । लेनधर्मका तुलनात्मक अभ्यास करने पर विदित होता है, कि जेनधर्म स्वयं विज्ञान (50ं८0८९) है । उस गाध्यात्मिक विज्ञानके प्रकाश तथा विकाससे जड़- वादका अन्धकार दूर दोगा, तथा विश्वका कल्याण होगा। लेन-शासनमे भगवान्‌ वुषमदेव अदि तीथंङकरोने सर्वाङ्गीण सत्यका साक्षात्कार कर जो तार्विक उपदेश दिया था, उस पर संक्षिप्त प्रकाश डाला गया है) लेन श्रन्योंका परिशीलन आत्मसाघनाका प्रशस्त-मार्ग तो बतायगा ही, उससे प्राचीन मारतकी दाशनिक तथा घामिंक प्रणाठीके विषयमें




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