सियारामशरण गुप्त | Siyaramasharan Gupt
श्रेणी : जीवनी / Biography
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
24 MB
कुल पष्ठ :
221
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)४.
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कलाकार जब उधाड़ा होकर बाहर नहीं निकलता तब सहसा श्रंपने मन क्रा
वर्ण सबके सम्मुख क्योंकर दया सकता है । श्रथवा कला णकान्त कौ ही
साधना है | बाहर आये बिना यदि उसकी गति नहीं तो क्या श्राएम्म में उसे
संकोच भी नदयो ? प्रतिमा जब पागलपन की ही एक श्रवस्था मानी जाती है
तब कौन श्रकस्मातूं उसका प्रदर्शन करने से सं कुचित न होगा १ श्रपने कृतित्व
की परीक्षा में उत्सुकता के साथ एक शंका भी रहती है । जो हो, मुर्भ एक
सतीं मिल जाने से संतोष ही हृश्रा । जितना सदयोग म॑ दै सक्ता था म॑ने उन्हे
दिया | मेरे लिए इसते श्रयिक क्या संतोग होगा कि श्राज बड़ सहयाग हम दाना
में पारस्परिक हो गया है |
वस्तुतः मेरे सहयोग फी सीमा कवि के ककडरे तक ही समभनी लाहिए. |
शीघ ही वे गुरुदेव की रचनाओं के सम्पक में था गये. श्रीर उनसे प्रभावित
होकर उन्होंने श्रपना माग निधारित कर लिया | यों तो शव भी उनकी स्वनाएं
छुपने से पहले एकाधिक बार में पढ़ लिया करता हूँ; परन्तु मेरे किसी संशोधन
श्रथवा परिवतन को मान लेने के लिए वे बाध्य नहीं । यद्दी उचित भी है |
पद्य के सेंत्र से आगे बढ़कर उन्होंने गद्य में कहानियाँ शरीर सिबन्ध श्ादि
भी लिखना प्रारम्भ कर-दिया । इसमें एक दो सम्पकित लोगीं से उन्हें जो सम्मतियों
मिलीं वे श्राशाप्रद न थी । परन्तु मेरा मन हर्पित श्रोर श्राकर्पषित था । मेने उनम
[; “तुम्हें तनिक भी हृतात्ताह होने की त्रावश्यकता नददीं । तुम्हारे इन समीन्नुकं
मे एक श्रपने मन से श्रोर दूसरा अपनी बुद्धि से विवश है ।
अब तो * उनमें इतना आत्म-विश्वास है कि वे श्पने प्रकाशन के
व्यवसाय को भी स्वार्थ के साथ परमा्थ का साधन मानते हैं ।
' साहिस्य-प्रेस की स्थापना के विचार में भी वे ही श्रघिक उत्साही हुए | एक
क्राउन फ़ोलियो ट्रेडिल लेकर ही का आरम्भ करने की उनकी जना र्थ
परन्तु जव मशीन लगाने का निश्चय हमरा तब वह भी मेरा एक ब्यमम प्रन
गया | थोड़े दिन हुए; उनके सुन्नोपम चि० राय श्रानस्दकृष्ण ने उनकी उस
योजना का श्रौचिस्य शारदा-मुद्रणु से सिद्ध कर दिया।
सियारामशरण
यौवन के आरम्भ में ही सियारामशरण को श्वास का दुद्धर रोग इथ्ा |
बीच-बीच में उनका कष्ट देखकर हम लोग किंकर्तव्यविमूद हो जाते हैं| 1
तनिक प्रकृतिस्थ होते ही वे कुछ लिखने-पढ़ने की चेषा करते हैं । इसी स्थिति
में उन्होंने अपने-आप श्रैगरेजी का भी इतना श्रम्यास कर लिया है कि थे उसके
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