पृथ्वीराज | Prithviraj

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Prithviraj  by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पृथ्वीसेज्ञ । १५ स~ च्रं ग्राहक नहीं होते ।. किन्तु इचर मीरहुखेन रूपवान शरीर शुणु- चान दोनों ही था । इसी कास्ण चित्र रेखा का प्रेम भीर हुसेन पर अधिक कुक पड़ा । मीर हुसेन भी उसे हव्य से चाहता था फिर फ्या पूछना-सोने में खुगंध दो गई। दोनों आनन्द करने लगे । किन्तु शदाजुद्दीन को शीघ्रदी उन दोनों के शुप्त प्रेस का दाल मालूम हो गया । उसने उसी समय डरा 'घमका कर उसको इससे रोकना चाहा । पर दोनों प्रेमी अभिन्न हृदय थे । लाचार गोरी के सय से, मीर हुसेन माग कर सीधे पृथ्वीराज की शरण में झा गया। क्षत्रिय वीर कभी शरण में आये हुए को दूर नहीं करते | झतः्तंवं सम्मति से पुथ्वीराज्ञ ने भी यही निश्चय किया कि शरणारात की रक्षा करना ही वीरोका कर्तव्य है । बस उन्होंने उसी समय मीर हुसेन को सम्मान पूर्वक झपने द्वार मे स्थान देकर हँसी शरीर हिसार के परणने सी जागीर में दे दिये । अव यहा पर प्रत्येक पेतिददासकों का अझलगभमंत है। चंद वरदाई इसीचिन्नरेखा वेश्या को ही शदावुद्दीन को पृथ्वीराज से देर बांधने का प्रचान कारण लिखते हैं परन्तु श्रन्य ऐतिहासिक ल्लोग चिघरेखा फे विषय में कुछ न कद कर यही लिखते हैं कि भारतवर्ष में इसलाम धर्म का प्रचार करना, झऔर शख पर विदे शियो.की लब्घ इष्टि ही, शहाबुद्दीन श्रौर पृथ्वीराज में युद्ध छिड़ने का प्रधान कारण है । झस्तु-- ज्यों ही मीर इसेन गजनी से निकला त्योद्दी शहाडुद्दीन के




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