जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भाग 2 | Jainendra Siddhant Kosh Bhag 2
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
42 MB
कुल पष्ठ :
650
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१. ठीनों करणोंकी बरिलाम जिज्ुद्धियोंमे लरतमता
थ. है।१४-८,५/९९३४ अधापबसकरणपहमसमपद्रिदियंघादी चरिमसम-
अदिवंषो हंलेज्जगुणहीनो । एत्पेव पहमसम्मततसंजमासंजमाभि-
हस्व रिषो
संखेज्जगुणहीणो, पढ़मसम्मत्संजमाभियुदस्स
अपापनत्तकरणचरिमंसमय द्रिदिगं घो. संखेज्जगुजहीणी ।'''एममधा-
पबसकरणस्स कज्जपहूपनें कद ।
घ. है १,६०८, (४/२६६/३ तत्वतथ अणियहीकरणदिदिषावादो चि रत्थ-
तजअपृव्यकरण ट्रिपिवाइस्स भहुगयरतावों था । भ चैदनरष्वकरनं
तुर्लं, सम्मस-संजम-
संणमासंजमफलाणं सुझ्नतनिरोहा। न चापब्बकरणाणि सब्मअणियटी
करने हिंतो अगतगुणहीवाणि ति न बोत्त! शु्त , तदुष्पायणदुत्ताभागा ।
न १, अधप्रबत्तिकरणके प्रथम समय सम्बन्धी स्थिति-बस्थसे उसी-
का अन्तिम समय सम्बन्धी स्थितिषन्ध संख्यात णुगाहीन होता
है। यहाँपर ही अति जधःप्रयूसकरणके चरम समयमे हो प्रथम-
सम्यकरवके अभिमुख जीवके जो स्थितिनन्ध होता है, उससे प्रथम
सम्यकत्व सहित संयमासंममकते अभिमुख जीवका स्वितिनच्ध
संरम्पातयुणा होन होता है । इससे प्रथम सम्प्रक्त्व सहित सकलसंयम-
के अभिमुख जोबका अधःप्वृष्तकरथके अन्तिम समय सम्बन्धौ
स्थितिभन्ध संस्यातिगुणा हीन होता है । - इस प्रकार अधःप्रवृल-
करणके कार्योका निरूपण किया । २. बहकि अथवति प्रथमोपराम-
सम्यगरबके अभिमुख्र मिथ्याइडिके, अभिवृत्तिकरणसे होनेबाले स्थिति -
घातकी अपेक्षा यहाँके शर्त संयमासंयमके अभिमुर्व मिथ्याहष्टिके,
अपू करणसे होनेवाला स्थिशिवात बहुत अधिक होता है । तथा, यह
अपूर्वकरण, प्रथमोपशम सम्यक्स्वके अभियुख मिध्थादश्िकि अपूर्व -
करण के साथ समान शटी है; क्यों कि सम्यक्त्व, संयम और सं प्रमा-
संयमरूप फलबाले विभिन्न परिणामों के समानता होनेका विरोध है ।
तथा, सर्ब अपूर्वकरण परिणाम सभी अनिशृत्तिकरण परिणामॉसि
अनस्त गुणहीन होते हैं, ऐसा कहना भी युक्त नहीं है; क्योंकि, इस
जातक प्रतिपादन करनेवाले सूत्रका अमाव है । भावार्थं -( यथपि
सम्यक्त्व, संयम् या संयमासंपम आदि रूप किसी एक ही स्थानमें
प्राप्त तीनों मरिणामों की विशुद्धि उसरो्तर अनन्तगुणा अधिक होती
है, परन्तु विभिन्न स्थानोंमें प्राप्त परिणामोंमें यह नियम नहीं है ।
बर्हा तो निचते स्थानके अनिवृत्तिकरणकी अपेका भी ऊरूपरते स्थान-
का अषप्रवृू्तकरण अनस्तणुणा अधिक होता है । )
९. तीरमो करर्णोका काणं भिन्न कैते है
ध, ६/१,६.८.१४।१८६/२ कथं तानि खेत तिण्मि करणानि पृष पुष
कर्डुप्पायभाणि । ब एस दोसो, सक्वणसमाणत्तग एयन्तमाकण्णा्ं
भिण्णकम्मनिराहितणेम भेश्भुङणयाणं जोगपरिणामाणं पध पृष
कञ्ञुबपायणे विरोहाभागा । -प्रश्म- बे हो तोन करणं पृथक्-पृथक्
कायि { सन्पक्त्न, सभम, सं यमासंपम आदिके ) उरपाद्क कंते हो
सकते हैं! उसर-यह कोई दोष नही है, क्योकि, सक्षणकी तमा-
नतताठे एकत्वको प्रात, परन्तु भिन्न कमङि निरोधो होनेते भेदको भी
मा जोग परिणमक्ति पूृथक-पृथक कार्य के उत्पादनमें कोई विरोध
म |
४. अधःपवृत्तकरण निर्देश
. अध:प्रशुत्तकरणका रकण
से. सा. दू. व. जो. प्र. ३४/०० जहा हेट्रिबमागा उनरिमभवे हिं सरिसगा
होॉशि । तह्ा पढमें करण अषापतोत्ति णिविद्ढं २६ संख्यया
विशुक्षया च खरा भवस्ति तस्मात्कारणाताधम:ः करणपरिणाम: अथः-
वृत्त इलन्धर्षतो निर्दिड: । =करणनिका नाम नाना जीव अरेता
४. अषःपरवृतकरण निर्देश
है। छो अघःकरण मदै कोई जीवको स्तोक काय भया. कोहं बौव-
को बहुत काल भया । तिजिके परिभाम दस करणविदै संशया ब
बिशुद्ताकरि ( अयति दोनों हौ प्रकारते ) समाम भीष रेखा
आनना । आकि इहा निचे समयवर्ती कोहं जीवके परिणाम एपरते
समयवा कोह जीयके परिणामके शकश हो हैं ठायै भाका नाम
अभःपकृसकरण ह । ( यथपि बक परिणाम असमान भी होते हैं,
परन्तु अधःधकृ्च करण इस संहा मे कारय नीते ब उपरते षरि-
शामों की समानता ही है असमानता नहीं ) । ( गो, जी. |सू./ ४८
१००), ( गो. क.(पू+८६८।१००६) । जर भौ दे० अधःप्रक्तिकरण
१. भवग्प्हच्श्रनका काम
गो, जी सू. ४६/१०२ अंतोसुहुत्त मेतो तक्षातो होदि तत्थ परिणामा ।
णो. जी जो, /४६।१०२९ स्तोकान्तमुंहुर्त मात्रात अभिवृत्तिकरणकालात
संख्पातयगूण अपर्जकरणकासः; अतः संरस्थातगुण: अच:प्रबूत्तकरण-
कालः सोऽप्यन्तमुंूत माकर सव ।- = तीमो कर्निनिषे स्तोक अम्त-
महतं प्रमाय ` धनिक लिकरणका कान है । याते संख्यातयुनः अर
करणका काल है । यातें संरग्पातगुणा इस अधंःअरकृत्तकरणका काल
है। सो भी अस्तर्गूहूर्त मात्र हो है। जाते अन्तर्मुहूर्तके भेष बहुत
हैं। (गो. कम /टट£/१०७६ १!
३. प्रति समय सम्भव परिभामोंकी संख्या संध्षि व
यज्व
थो, जो,जी. प्र. ४६/१०२-१०६/६ तस्मिश्रघ-प्रबत्तकरणकाले त्रिकाल-
सोषरनानाजीवसं गन्धिनो बिश ्परिणामा' सर्वेऽपि असंसू्यातलोक-
मात्राः सन्ति) २। तेषु ्थनसमयसंबन्धिनी याबन्तः सन्ति द्वितीया-
दिसमयेषु उपयु परि षरमसमयपर्य न्तं सदृशवृद्धया मर्धिताः स्ति ते
च तावदडड्संहष्टू या प्रदर्यतै--तत्र परिशामा' द्वासप्रत्युत्तरत्रिसहली
३०७२।अधघःप्रृतकरणकालः षोहशसमयाः।१६। प्रतिषभयपरिणामवृचि-
प्रभानं चतवारः }४1..-एकस्मिस् प्रये ४ वर्धित शति हितोयतृत्तीया-
दिसमयब्िपरिणामानां सस्या भवति । ताः इमाः-१६९,१००.९४,
१७०८,१८१,१०६.१६०.१६४, प 1 इता-
श्कधनानि अचः घमसममाशरमसमयपर्मन्तमुपरयुपरि
स्थापमितब्यानि । अगामुकृषिरिचनों धप्रते-तत्र अमुकृष्टिनम जधस्तन-
समयपरिणामरवण्डाना : भास्यं भवति
( १०२६) अव सर्वभवन्यलण्डपरिणामानां ३६ सर्वत्कषटखण्डपरिणा-
भानां ६७ च केरपि साशरश्यं नास्ति झेघाशामेवो पर्यधस्तनसममबर्ति-
परिणामपुञ्ञानां यथासंभवं तथासं भवात् । -«-अथ अर्थसंदश्था
बिस्वासों दश्यते -तथथा-त्रिकालगोचरमानाजीवस बल्घिनः अथः-
प्रकृत्तकरणकासमस्तसमयसंमभिनः सर्वपरिणामा असंल्यातलोक-
मादा; सन्ति । २,अघःअकृत्तकरणकान्नो गच्छः { १०२।४) । अयाः.
शषृत्तकरणकालस्य प्रथमादिसजयपरिणामानां मध्यै त्रिकाललगोकरनाना-
जीवरसंबन्धिप्रथमसमयजघ न्यमेध्यमोस्कृष्टपरिणामसयूहस्याधज्रबूत्त -
करणकाशस स्प्पार्त कभागमाजमिरव गजकाव्डकसमयसमानानि... २९९
स्ण्डानि क्रिपत्ते तामि चपाधिकानि भवन्ति । ऊर्ध्ब रचना चये अमु-
कृषटिपदेग मक्त लग्धमगुकृषटि चयप्रमाण भवगति । ( ₹०४/१३) । परत:
डितोयसममयपरिणामप्रथमरवण्डप्रथमसमयप्रथ मस्वन्डाहिशेवाधिकस ।
+. (१०६/१४) | हिती यसमयप्रथमरू रयमसममहितीयजर्ड च दवे सदे
तथा द्वितौयसमयदितौयाविलण्डानि प्रथमसमयतुतीमादिलवण्डैः तह
सशशानि किंतु ितोनसमयवरमशण्डतरभमसमयसण्डेवु केनापि सष
सदशं नास्ति । अतोऽपे...अधःपवचकरनकालचरमहमयपर्यन्ं नेत-
अ्यानि{(९०६।१९) = तोहि अधःपकृत करनके कानि अतीद अनागत
बत मान ज्िकालवर्ती ताला जोग सम्बन्धी विशुद्ततारूप इस करलके सर्व
परिणाम खसं ल्यात लोक प्रमाण है । .-अङुरि तिनि परिनामनिनि्े
जैनेन्द्र चिडान्त कोष
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