पुरंदर - पुरी | Prandar- Puri

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Prandar- Puri by विद्याभूषण विभु - Vidhyabhushan Vibhu

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रक्तसिंचिता को हाय घोलो हे पथिक आज, घूल भी रहे न ऐसी सरिता वहादों शीघ्र, हृदय विदीणं चिह्न यहाँ कोइ रदे नही जिसको प्रवासी देख फूट-फूट राये कभी । रोओ-रोओ फिर रोझो बार-बार रोओ तुम, सुनता है कौन इस विजन विपिन मध्य, एक वार फिर एसा रुदन मचादा सखे पत्थर पिघल कर वनजाय पानी पानी, धो दो इन आंसुच्यों से उन दग्ध दयो को जिन्होंने मचाया यहाँ जंग महाभारत का । तुम रोते, तारे रोते, रोते तरु खग पशु, मानो अंधियारी घटा वरसती घनघोर, रोती है कलिन्द-सुता धीरे धीरे जाती हाय, शोक से भरी है और वलियाँ वदन पर, बड़ी है विकल अह ! बीते हैं सहस्वों वष जव से गह है वह स्वामी सिंधु के समीप लौट कर श्ाइ नहीं फिर कभी पिठगेह, केसे कह सुनावे व्यथा पिता हिमवान को । हाय निज जीवन दे पाला खौर पोसा जिन्हे- इस दुखिया सा कौन खो चुकी है सब कुछ, ८ ९०४८




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