यथार्थ से आगे | Yatharth Se Aage

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Yatharth Se Aage by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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से झागे ६ जिस भटकार की तृप्ति किसी की उपेक्षा भौर अपमान से होती है, वह हिसझ होवा दै । पर जिस प्रतिह्विसा का जन्म किसी की उपेक्षा श्रौर भ्पमान से होता है, प्राय: उसका भन्त प्रतिष्ठा, विजय पौर गौरव की सुप्टि करता है । ५२ : धन्य कपडे उतारकर केवल एक बनियान प्रदीप ने बदन पर रहने दी 1 फिर तिखंदे पर चढ़कर जब वहू रसोईघर में जा पहुंचा, ठो रसोइया महराज बैठा ऊँप रहा था भौर वित्ती सीर की पतीली साफ़ करती हुई शंकित दृष्टि से इधर-उधर देख रही थी ! प्रदोप जब चुपचाप भासन पर बैठा, तो मदराज चौंक पढ़ा । चोला--“झा गये सरकार !“ भौर चल्दे थी लकड़ी को भीतर की भोर खसकाने लगा 1 फिर भाटे की गोली पर हाथ बढ़ाते हुए बोला--“मगर बहुत देर कर देते है सरकार । वहलाइपे, ग्यारद तो बज गये । कद घर पहुचूंगा, कद सोऊँगा ? सवेरे साठ बजते ही शिकायत होने लगती है--चाय के साथ कोई नमकीन चीज़ नहीं बनी । ग्रोर इलुभा कया दाल-रोटी के झाय खाया जायेगा !” प्रदीप की थाली में खौर भौर सांग भलग-प्रतग कटोर्यों में परो जा चुका था । उसी में से सूखे भालू के टुवड़े को टूंगते हुए बहू बोला--' अब वी बार दिसम्बर का महीना जव लगे, तब याद “दिलाना इस वात की, समझे 1” , सुनकर महूराज चुप रद्द गया । प्रदीप के दख कयन का मूल्य वद्‌ नसममता था । न पराठा हदें पर जा चुका था ।




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