यथार्थ से आगे | Yatharth Se Aage
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
342
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)से झागे ६
जिस भटकार की तृप्ति किसी की उपेक्षा भौर अपमान से होती
है, वह हिसझ होवा दै । पर जिस प्रतिह्विसा का जन्म किसी की उपेक्षा
श्रौर भ्पमान से होता है, प्राय: उसका भन्त प्रतिष्ठा, विजय पौर गौरव
की सुप्टि करता है ।
५२ :
धन्य कपडे उतारकर केवल एक बनियान प्रदीप ने बदन पर रहने दी 1
फिर तिखंदे पर चढ़कर जब वहू रसोईघर में जा पहुंचा, ठो रसोइया
महराज बैठा ऊँप रहा था भौर वित्ती सीर की पतीली साफ़ करती हुई
शंकित दृष्टि से इधर-उधर देख रही थी ! प्रदोप जब चुपचाप भासन पर
बैठा, तो मदराज चौंक पढ़ा । चोला--“झा गये सरकार !“ भौर चल्दे
थी लकड़ी को भीतर की भोर खसकाने लगा 1 फिर भाटे की गोली पर
हाथ बढ़ाते हुए बोला--“मगर बहुत देर कर देते है सरकार ।
वहलाइपे, ग्यारद तो बज गये । कद घर पहुचूंगा, कद सोऊँगा ? सवेरे
साठ बजते ही शिकायत होने लगती है--चाय के साथ कोई नमकीन
चीज़ नहीं बनी । ग्रोर इलुभा कया दाल-रोटी के झाय खाया जायेगा !”
प्रदीप की थाली में खौर भौर सांग भलग-प्रतग कटोर्यों में
परो जा चुका था । उसी में से सूखे भालू के टुवड़े को टूंगते हुए
बहू बोला--' अब वी बार दिसम्बर का महीना जव लगे, तब याद
“दिलाना इस वात की, समझे 1” ,
सुनकर महूराज चुप रद्द गया । प्रदीप के दख कयन का मूल्य वद्
नसममता था । न
पराठा हदें पर जा चुका था ।
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