श्री अरविन्द के पत्र भाग - 2, 3 | Shri Aravind Ke Patra Bhag - 2, 3
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
19 MB
कुल पष्ठ :
554
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)0 श्रीभरविन्दके पत्र
1. वह् विश्वात्मा ओर विश्वपुरुप हैं जो सभी वस्तुओं और जीवोंके अन्दर और
पीछे विधमान है और जिससे और जिसमे विष्वके अन्दर सब कुछ प्रकट हो रहा हैं
-- यद्यपि यह अभी अज्ञानके अन्दर होनेवाली अभिव्यक्ति है।
2 वह हमारे अन्दर विधमान हमारी निजी सत्ताके आत्मा और प्रभु है जिनकी
हमें सेवा करनी है और जिनकी इच्छाको हमें अपसी सभी गतिविधियोंमें अभिव्यक्त
करना सीखना है जिसमे कि हम अज्ञानसे बाहर निकलकर ज्योतिमें वद्धित हो सकें ।
3 भगवान् पसात्पर सत्ता और आत्मा हैं, समस्त आनन्द और ज्योति और दिव्य
ज्ञान तथा शक्ति है. और उसी उच्चतम भागवत सत्ता और उसकी ज्योतिकी ओर
हमे ऊपर उठना हैं एच उसके सत्पको अधिकाधिक अपनी चेतना और जीवनमें नीचे
उतार लाना है।
सामान्य प्रकृतिमे हम अज्ञानमें रहते है और भगवासुकों नहीं जानते । साधारण
प्रकृतिकी शक्तियां अदिव्य शक्तियां है क्योंकि वे अहंकार, कामना और अचेतनताका
एक पर्दा वृनती दै जो भगवानूको हमसे उक देता है । जो उच्चतर और गभीरतर
चेतना जानती भौर ज्योतिर्मय रूपसे भगवानूमे निवास करती है उसमे जानेकै लिथे
हमें निम्नतरः प्रकृतिकौ शक्तियोसे छुटकारा पाना होगा ओर भागवती शक्तिकी क्रिया-
कौ ओर उद्घाटित होना होगा जो हमारी चैतनाको भागवत प्रकृतिकी चेतनामें
रूपांतरित कर देगी ।
भगवानुसम्बन्धी यही परिकल्पना है जिससे हमें आरम्भ करना होगा --
इसके सत्यका साक्षात्कार केवल तभी हो सकता है जव हमारी चेतना उदुघाटित और
परिवर्तित हो जायगी ।
भ
परात्पर, विर्बगत ओर व्यक्तिगत भगवानूक वीचका यहु विभेद मेरा अपना
आविष्कार नहीं है, न यह भारत या एशियाकी ही देशी उपज है -- यह, इसके विपरीत
एक स्वीकृत यूरोपियन थिक्षा है जो कैथोलिक चर्चकी गुह्य परम्परारमे प्रचलिते टै,
जहाँ यह त्रिमूर्ति) -- पिता, पुत्र मौर पवित्रात्मा - की प्रामाणिक व्याख्या
है, और यह यूरोपीय गह अनुभवकों भी बहुत ज्ञात है1 सारर्पमे यह् सभी
आध्यात्मिक साधनाओंगें पायी जाती है जो मगवानूकी सर्वेव्यापकताको स्वीकार
करती है भारतीय चैदान्तिक अनुभवमें यह है और मुसलमानी योगमें है (केवल
सूफी मतम नही, बल्कि अन्य मतोमे भी } ~ मूसलमान लोग दो या तीन नहीं घल्कि
भगवानूके बहुतसे स्तरोंकी वात भी कहते हैं और उनके वाद ही कोई परात्परतक
पहुँचता है। स्वयं इस भावनाका जहांतक प्रश्न है, निश्चय ही देग और कालके अन्दर
स्थित व्यक्ति मौर विष्व और जो कुछ इस विष्व-व्यवस्थाको या किसी सी विद्व
व्यवस्थाको अतिक्रांत करता है, उसके वीच एक अन्तर है। एक वैश्व चेतना है जिसका
अनुभव बहुतोंको हुआ है और जो अपने प्रसार गौर कर्मे व्यक्तिगत चेतनासे एकदम
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