एकाद्शीमहातम्य | ekadsimahatmay

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ekadsimahatmay  by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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एकादशीमादात्म्य भाषा । ११५ करो । हुम अपने पिता के समीप जाओ श्रौर, निष्करटक. राज्य को भोग ! नव ऐसी आकाशवाणी हुई तव दिव्य सूप धारण किया शौर ऽसकी मरति प्रम वैष्णवी दोकर श्रीङृष्ण जी में लीन हुआ धर दिव्य श्राभृषणों सें प्रिभपित दो पिता को नमस्कार करे घरमे रहम लगा । तव उस वैष्णव को, उसके पित्ता ने निष्कएटक राज्य दिया और उसने बहुत काल तक राज्य किया । वाद्‌ वह इरिवास श्र्वाद्‌ एकादशी और विष्णु की भक्ति में सदा लीन रहने लगा झऔर कृष्ण के प्रसाद से उसको मनवांधिंत पुत्र श्र इन्दर स्त्री हु । उसके पश्चात्‌ हद्धावस्था मात होने पर उसने पुत्र को. राज. पर बैठाया श्र विष्णु की भक्ति में परायण होके स्त्री सहित वन को चला गया और आआत्मसन करके विष्ण लोक को गया वहां - जाकर विष्णु के निकट चिंता रहित दोकर रहने लगा । इस प्रकार से सफला एकादशी का अरत जो करेंगे वे इसलोक में, यश और परलोक में निः्सन्देद मोक्ष माप करेगे सफला एकादशी का व्रत करने बाला मुष्य संसार मे. धन्य हैं, उसी जन्म में मोक्ष प्राप्त करेंगे इससे इसमें सन्देदद नहीं । हे राजा ! सफला का माहात्म्य नने से भलुष्य अश्वमेध य़ का एल प्प करे. स्वर में निवास करता है। व इति भी पौष ष्ण सफला एकादशी मा्षतम्य भाषा संम्पणे ॥ ३॥ युधिष्ठिर महाराज एक दिन शरीङृप्ण से एकान्त मे पृवे कि हे कृष्ण: ! झाप सफला नामक थम एकादशी कटै प्र रव पौप शकल कौ एकादशी, कृषा कर्‌ फटिये १ उसका कया नाम है ! उसकी कौन निधि है ?. और उसमें किस देवता की एजा करनी चाहिये १ हे पुरुपोत्म! हपीकेश ! आप किसके उपर मसन्न हुये ! .. श्रीकृष्ण जी बोले हे.राजन्‌! पौप.शुगल, की एकादशी और उसकी दिपि लोकों के उपकारार्थ सुनिये ! हे राजन । पतं अर्थात्‌ पहिले कही इर बिधि से शका चत करना चाहिये। इसका नाम पुत्रदा है, और गरह-समस्त पापों को: हस्नेबाली है । सिद्धि ओर काम को देनेवाली नाराय : इसके




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