विकाश दृष्टि दोष | Vikash Darsthi Dos

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Vikash Darsthi Dos by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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। कुछ उलझन जीवत धढ़कतें हुए सत्यकी अपने भीतर लिये ही लिये इस घरमें जी रही हूँ । इधर अत्र यह मेरे छि दूभर हे चला है' । मेरे पतिको तुम जानते हो । कैसे स्नेह हैं, कैसे सीधे हैं, किंतने परायण हैं । लेकिन मैं इधर उनसे बहुत लड़ने लगी हूँ । उन्हें देखकर जी स्वस्थ रहता दी नहीं । बद्द हँसते हैं तो मैं कुढ़ती ह| जी होता है, अरे मैं सर क्यों न गई । सदानन्द, तुम विरागी हो, मुझे बताओ कि क्या जिंदगीके एकएक दिन पसे दी जीने हेंगि ! मैं तुम्होर अत्यन्त प्रिय बन्खु,-- अपने पतिसे बहुत अनमसी-सी रहने लगी हूँ । जब तत्र तकरार खद़ी करती रहती हूँ, जिससे कि कोई क्षण तो ऐसा बने कि मैं आवेशर्मे भूल जाऊ ओर क प कि पूण सत्य क्या है । कह दूँ कि जो सती पतित्रता देवी लीलावती हैं, उनके भीतर एएक और है, उसका नाम है छिली । वह पतिदेवकी नहीं है, वद जाने किस,--औरकी है । अरे ओ भरे स्वामी, भने उस छिटीको कुचल कुचर कर मिटा देना चाहा है, पर वह नहीं मिटी है,---नहीं मिरी है| मेने यह तुमसे कद दिया है । अव जो कहो, वदी कर | पर सदानन्द; अपने विश्वासी पतिकी चिरप्रसन्न सुद्रा देखकर मेरी हिम्मत ट्ट जाती है । मैं उस निर्म प्रसन्नताको कैसे तोर १ जौँ खिरुखिल्मती धूप ही भरी है, काला बादल कहीं भी कोई नहीं है, उस स्वच्छ आकाशको कैसे एक साथ अपने मेठके स्फोट्से विश्ञन्घ कर दूँ १ यद मुश्किल ह | मुझसे नहीं श्रोता, नरश होता | लेकिन हाय, अपने भीतरका यह बोझ भी कैसे ढोडँ !? कव तक टोऊँ -१ सदानन्द, ओम होता है एक दिन संबेरे उठकर अपने पतिपर अनगिनित लाछन छ्गा डाँ, अपने मनको उनके प्रति कालिमासे भर दू भौर अपने अति बलात्कार-पूर्वक कद दूँ, “ तुम्शारा-सा पति मैं नहीं सह सकती; इसलिए, मैं जाती हूँ * और इस घरकी छायाकी छोढ़ कर चल दूँ | सदानन्द, तुम मुझे समझो । मेरी सारी व्यथा यह है कि कयौ मेरे पति इतने 'निश्छल, इतने उदार, इतने स्वरूपवान्‌ हैं ? क्यों वह मुझपर इतने विश्वासी तने सनष्टी-दै क्यौ वह इतने छाल हैं ! मेरे लिए सदानन्द, पति-कृपा ८२ जा रही है । जबसे मैंने जाना है कि उन्होंने तुमको पौच हजार बग्बई भेजा दे, तबसे मैं बेहद विश्लुन्ध हूँ । वदद मुझे क्यों ये |“ हैं मुझे सादम होता तो मैं एक पैठा नहीं देने देती । तुर्ग्दे क्या है




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