विकाश दृष्टि दोष | Vikash Darsthi Dos
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
224
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)। कुछ उलझन
जीवत धढ़कतें हुए सत्यकी अपने भीतर लिये ही लिये इस घरमें जी रही हूँ ।
इधर अत्र यह मेरे छि दूभर हे चला है' । मेरे पतिको तुम जानते हो । कैसे
स्नेह हैं, कैसे सीधे हैं, किंतने परायण हैं । लेकिन मैं इधर उनसे बहुत लड़ने
लगी हूँ । उन्हें देखकर जी स्वस्थ रहता दी नहीं । बद्द हँसते हैं तो मैं कुढ़ती
ह| जी होता है, अरे मैं सर क्यों न गई । सदानन्द, तुम विरागी हो, मुझे
बताओ कि क्या जिंदगीके एकएक दिन पसे दी जीने हेंगि ! मैं तुम्होर अत्यन्त
प्रिय बन्खु,-- अपने पतिसे बहुत अनमसी-सी रहने लगी हूँ । जब तत्र तकरार
खद़ी करती रहती हूँ, जिससे कि कोई क्षण तो ऐसा बने कि मैं आवेशर्मे भूल
जाऊ ओर क प कि पूण सत्य क्या है । कह दूँ कि जो सती पतित्रता देवी
लीलावती हैं, उनके भीतर एएक और है, उसका नाम है छिली । वह पतिदेवकी
नहीं है, वद जाने किस,--औरकी है । अरे ओ भरे स्वामी, भने उस
छिटीको कुचल कुचर कर मिटा देना चाहा है, पर वह नहीं मिटी है,---नहीं
मिरी है| मेने यह तुमसे कद दिया है । अव जो कहो, वदी कर |
पर सदानन्द; अपने विश्वासी पतिकी चिरप्रसन्न सुद्रा देखकर मेरी हिम्मत
ट्ट जाती है । मैं उस निर्म प्रसन्नताको कैसे तोर १ जौँ खिरुखिल्मती धूप
ही भरी है, काला बादल कहीं भी कोई नहीं है, उस स्वच्छ आकाशको कैसे
एक साथ अपने मेठके स्फोट्से विश्ञन्घ कर दूँ १ यद मुश्किल ह | मुझसे नहीं
श्रोता, नरश होता |
लेकिन हाय, अपने भीतरका यह बोझ भी कैसे ढोडँ !? कव तक टोऊँ -१
सदानन्द, ओम होता है एक दिन संबेरे उठकर अपने पतिपर अनगिनित
लाछन छ्गा डाँ, अपने मनको उनके प्रति कालिमासे भर दू भौर अपने
अति बलात्कार-पूर्वक कद दूँ, “ तुम्शारा-सा पति मैं नहीं सह सकती; इसलिए,
मैं जाती हूँ * और इस घरकी छायाकी छोढ़ कर चल दूँ |
सदानन्द, तुम मुझे समझो । मेरी सारी व्यथा यह है कि कयौ मेरे पति इतने
'निश्छल, इतने उदार, इतने स्वरूपवान् हैं ? क्यों वह मुझपर इतने विश्वासी
तने सनष्टी-दै क्यौ वह इतने छाल हैं ! मेरे लिए सदानन्द, पति-कृपा
८२ जा रही है । जबसे मैंने जाना है कि उन्होंने तुमको पौच हजार
बग्बई भेजा दे, तबसे मैं बेहद विश्लुन्ध हूँ । वदद मुझे क्यों ये
|“ हैं मुझे सादम होता तो मैं एक पैठा नहीं देने देती । तुर्ग्दे क्या है
User Reviews
No Reviews | Add Yours...