पुरस्कार | Puraskar

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Puraskar by कृष्णानन्द गुप्त -Krishnanand Gupt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पुरस्कार श्रव शिल्पी का यह ह्यल हो गया कि वह महीनों श्रपनी कोठरी से बाहर न निकलता । कब सूर्योदय हुआ श्रौर कब सूयास्त, उसे जाब तक न पड़ता । ' वह केवल देखता था डेने-रेसे डने, जिनसे मनुष्य पच्नी की तरद श्राकाश में उड़ सकें | एक दिन उसकी पत्नी भोजन लेकर जब उसके निकट पहुंची, उससे शिशु की भाँति च्रानन्द से क्रिलकरिलावे हुए कडा-- भेरी श्राधी कठिनाई दूर हो गयी | सुभे तरकीय मालूम हो गवी । उसे कायं सूप म परिणत भर करना है । यदि में किसी प्रकार कृप्ण पारद को बाँध सकू , तो मनुष्य के लिए श्राकाश में उड़ना ऐवा ही सहज हो जाये; जेसा पक्षी के लिए, |? दरब उसकी दृष्टि चीणा हो गयी थी। हाथ कॉरपने लगे थे । शरीर में उठने का बल नहीं था । जान पड़ता था; वह श्रपने आधिष्कार के लिए ही जीवन धारण किये है| अन्त में एक दिन प्रमात-समय, जब बादर दिनमणि की किरणे खिल रही थीं, उससे चीण उत्फुल्ल स्वर में अपनी पत्नी से कहा-- “डने बन गये श्र श्राज में इनकी परीक्षा करूंगा !? वह्‌ डने लगाकर बाहर निकला; और श्राश्चर्य ! धीरे-धीरे वायु में ऊपर उठने लगा | उसकी पत्नी श्रवाक्‌ होकर देखने लगी । उसका पति झाकाश में उड़ रहा था ! बह श्रानन्द से दत्य करने लगी । जिसने देखु, वदी श्राश्चयं से स्तम्ध होकर रह गया । खबर महाराज के पास मी पहुंची । वहं राजमहल की सबसे ऊंची श्रद्दलिका प्रू




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