मुद्रा की रूपरेखा | Mudra Ki Rooprekha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बहुमूल्य धातुएं तथा सिक्के पुः सकता है, शिकार के उपयुक्त और घरेलू पशु भी तथा आवश्यकता के अनुसार उसी . से अन्य किसी की मिहनत भी खरीदी जा सकती ह, एवं अकाल के समय दूसरे का सामान भी । अर्थात इससे भाड़े पर नौकर भी पा सकते हैं और मूल्य देकर अपने पास न होनेवाला पदां भी। अब धनी आदमी को अपनी सारी सम्पत्ति बकरियों के रूप में रखने के अतिरिक्त और कुछ नहीं करना है। इस प्रकार मृद्रा . मे कय-रक्ति का संचय है और यह उसकी तीसरी साथकता ह । ` किसी भी पदाथं मे जिससे मुद्राकाकामल्ेना हो, ये तीन गृण होने चाहिये ।: इन्हीं तीनों गुणों के समन्वय से मुद्रा का आविर्भाव होता है। मुद्रा के सभी परवर्ती गुण इन्हीं तीनों प्राथमिक और अनिवार्य विशेषता के आधार पर उनके संशोधित रूप हूं। मनुष्य के सभी आविष्कारों में मुद्रा. का आविष्कार भी' एक मूल्गत स्थान रखता है। ज्ञान की प्रत्येक शाखा में एक मूलगत अंन्वेषण पाया जाता है। यन्त्रकला में चक्र, विज्ञान में अग्ति, राजनीति में “मत' ( ४०६९६ )) काजो स्थान ह, अर्थशास्त्र मेंमुद्राका वहा स्थान हे। मनूष्य कें सामाजिकः अस्तित्व के सम्पूणं आधिक पक्ष मूद्रा पर आधारित हैं । बहुमूल्य धातुएं तथा सिक्के ९08 14874. ^ पाः ए01४६ ऊपर बकरी-मुद्ठा ( 8॒०2(-ए५0106फ ) का जो उदाहरण दिया गया हे वह केवल काल्पनिक नहीं है । प्रारम्भिक कृषक-समाज में घरेलू पशु ही धन का रूप लिये हुए थे और उनका व्यवहार मृद्रा के रूप में बराबर होता था । परपझुका मुद्रा के रूप में व्यवहार करने मे कठिनाइयां ह । सभी बकरियों का आकार.प्रकार समान नहीं होता । यदि कोई आदमी अपने खेत को २० बकरियों के दाम पर बेचता है और उसे खरीदार की बकरियों के शुंड में से चुन-चूनकर रोगी और दुबली-पतली बकरियां दे दी जाती हें तो वह अपने आपको ठगा हुआ समझेगा । इसके अतिरिक्त बकरियों के साथ अन्य असुविधाएं भी हैं । बकरियों में किसी बीमारी के लग जाने से




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