जैन हिन्दी पूजा काव्य परम्परा और आलोचना | Jain Hindi Puja Kavy Parampara Aur Aalochna

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Jain Hindi Puja Kavy Parampara Aur Aalochna  by डॉ॰ आदित्य प्रचन्डिया - Dr. Aadity prachandiya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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{ प ) का शमावेश कर दिया है जो किसी काव्य पुराण, इतिहास, संबीत, छन्द, अलंकार एवं अन्य प्रकार के साहित्य में मिलते हैं । कहने का तात्पर्य है कि जैन विद्वानों ने उन सभी गुणों का समान्श कर दिया है जिससे पूजा सिंचयक साहित्य घामिक साहित्य के साथ-साथ लौकिक साहित्य भी बन गया है । यह पुजा साहित्य प्रात, अपभ्रंश, संस्कृत, हिन्दी आदि सभी भाषाओं में उपलब्ध होता है । जैनाचार्यों की यह विशेषता रही है कि उन्होंने जो भी जन भाषा ही उसी मे अपनी लेखनी तथा देश एवं समाज को भाषा विशेष के कारण साहित्य से वंचित नही किया । राजरथान के जैनशास्त्र भण्डारों की ग्रंथ सूचियों के जो पाँच भाग प्रकाशित हुए है उनको हम देखें तो हमें देश की सभी भाषाओं में निबद्ध साहित्य का सहज ही पता चल सकता है । पूजा साहित्य की सैकड़ों पाण्डुलिपियों का परिचय इन ग्रंथ सूचियों में उपलब्ध होता है जिनको देखकर हमारा हृदय गदुगद हो उठता है और इन पुजाओं के निर्माताओं के प्रति हमारी सहज श्रद्धा उमड़ पड़ती है । जेन पूजा साहित्य किसी तीर्थकर विशेष मौर चौबीस तीथंकरों तक ही सीमित नहीं रहा किन्तु विद्वानों ने बीसों विषयों पर पूजाएँ लिखकर समाज में पूजाओं के प्रति सहज आकषेण पैदा कर दिया । पुजा साहित्य का इतिहास अभी तक क्रमबद्ध रूप से नहीं लिखा गया । यद्यपि प्राचीन आचायोँ ने पूजा के महत्व को स्वीकारा है और उसमे अष्टद्रव्य पूजा का विधान किया है लेकिन महापडित आशाधर के पश्चात्‌ जन सन्तों का पूजा साहित्य की ओर अधिक ध्यान गया और अकेले भट्टारक सकलकीति परम्परा के धटारक शुभचन्द्र ने संस्कृत भाषा में २५ से भी अधिक पूजाओं को निबद्ध करने का एक नया कीतिमान स्थापित किया । इनके पश्चात्‌ तो पूजा साहित्य लिखने को विद्रत्ता पाण्डित्य एवं प्रभावना की कसौटौ माना जाने लगा इसीलिए साहित्यिक रुचि वाले अधिकांश भट्टारकों एवं विद्वानों ने अपनी लेखनी लाकर अपने पाण्डित्य का परिचय दिया । हिन्दी में पूजा साहित्य लिखना १७वीं शताब्दी से प्रारम्भ हुआ । इस शताब्दी में होने वाले रूपचन्द्र कवि ने पंचकत्याणक पूजा की रचना समाप्त की ओौरं हिन्दी कवियों के लिए पूज साहित्य लिखने के एक नये मागें को जन्भ दिया । इक्त शताब्दी मे भौर भी बचियों ने छोटी-छोटी पूजाय लिखी लेकिन १८४ीं शताब्दी आते-आते हिन्दी में पूजायें लिने को भौ पाण्डित्य की निशानी समझा जाने लगा यही कारण है कि इस शताब्दी के दो प्रमुख




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