जैन साहित्य में विकार | Jain Sahitya Me Vikar

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Jain Sahitya Me Vikar by पण्डित वेचरदास जी - Pandit Vecharadas Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(ड) न्तवाद की पचिन्न सरिता में धोने के लिये कटिचद्ध हो ज्ञाना चाहिये । व्यवहार कुशल व्यापारनियुण लैनसमाजकों भविष्य में ब्रानेचाछी श्रापत्तियोंके प्रतिकारका श्रमीसे उपाय करकेना चाहिये । घतिवरप लाखों रुपया धार्मिक मुकदमेवाज़ी में-ब्यय करने घाली मन्द्रोंकी दीवारों पर मना सोना छिपवाने घाली, लाखों रुपया रथयात्रामें वहानेवा छी श्रौर श्रसंख्यधन मुनिवे- शिपोंके लिये लुटा देने चाली जनसमाज ''इकवाल के इस झेरको विचार पूर्वक पढ़े श्रौर समझे । श्रगर श्रव भी न समकोगे तो मिट जाओगे डुनियासे । तुम्हारी दास्तां तक भी ते होगी दास्तानोंमें ॥ हिन्दी भाषा भापियों को एसी श्रनुपम .पुस्तक पढ़नेका सौभाग्य प्राप्त होगा, इसके लिये भ्रनुवादक मददीदय धन्यवाद के पात्र हैं । पहाड़ी -घीरज, दिल्ली |.) ज्येष्ठ कृष्णा ४ थी० नि० सं० ध्न | झुयाध्याप्रसाद गोयलीय “दास” नन = = जी = न ज पलक ना कि कण कर अगर पारा बन हनन ज १. पक्तपतो न मे चीरे, न द्वेः कपिलाप्रिपु 1 युत्तिमदहचनम्‌ यस्य, तस्यका्यः पगि्रहः॥ --धीहरिमिद्रथ्रि ।




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