जनक - नन्दिनी | Janak-nandini

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Janak-nandini by श्रीयुत पण्डित तुलसीदत्त - Shriyut Pandit Tulasidas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ के | बस पाठकचृन्द ! इसीसे उसकी सफाई समभल, अधिक लिखनेकी कोई भावश्यकता नदीं | पुस्तकके ४५ यें पृष्ठपर जो कर्मका जीधके सम्बन्धे कथन है बद अपने टंगका निराला ही है | वहीं लेखककी प्रतिभा तथा सांसारिक ज्ञानका पूर्णं परिचय प्राप होवा है जहां वह कहता है :- “विचित्र नाटक है छम्दगीका, विचित्र इसके द अर तीनों । बनाके वालक जवान बडा उमरका पर्दा गिरा रहा है। अब मैं यहां अधिक न लिखकर इस रल्नकों सादित्यिक जौहरीयों ही षर छोड़ देता ह' कि थे इसका दाम लगाव आर अपने विचार प्रकट करे । रापघन और शु्पणखाके चरित्रके विषयमें मैने पहले ही उदे ल कर दिया है किन्तु इतना कह देना उचित है कि रामकी करुणाने अन्तमें दोनॉपर पूर्णतया विजय प्राप्त की ओर चिरशत्र शूपणखाकों भी मित्र बनाया । ८७ वें प्ृष्ठपर जहां शुपंणखा हाथमें विष लेकर दोनों भाइयोंको पिलाने आती है और ज्यों राम लेनेको आगे बढ़ते हैं उसका हृदय द्दल जाता है और रामके पुनः मांगनेसे बह विष दूधमें पट जाता है। शपंणखा ओर रामघन देख आश्चय्यिंत दो जाते है ओर शुपंणखा यही कहकर खबंदाके लिये छोप हो जाती है जो अत्यन्त उल्लेखनीय श्रतीन होता है | “क्लमा नाथ ! क्षमा ! मैंने आज आपका असली सरुप देखा | नमहकार, नमस्कार, नप्स्कार । जे प्रभु ! जे प्रसु !! जे प्रमु !!!”




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