प्रतिध्वनि | Pratidhwani
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
1 MB
कुल पष्ठ :
73
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१३ गर्दडी में लाल
करने का फल भोगती है। श्रागामी भविष्य की उभ्बलतामे
विश्वास रख कर हृदय के रक्त पर सन्तोष करे । जिस देश का
भगवान हो नहीं; उसे विपत्ति क्या ! सुख क्या !
परन्तु बुद्विया सबसे यही कहा करती थी--'“मैं नोकरी
करूंगी । कोई मेरी नौकरी लगा दो ।” देता कौन, जो एक घड़ा
जल भी नदी भर सक्ती, जो स्वयं सही उठ कर सीधा खड़ी हो
सकती थी; उससे कौन काम कराये ? किसी की सहायता लेना
पसन्द नहीं, किसी की मिक्ता का अन्न उसके मुख में पेठता ही न
था। लाचार होकर बाबू रामनाथ ने उसे अपनी दुकान में रख
लिया । बुदिया को बेरी थो, वहं दो पैसे कमाती थी । अपना पेट
पालती थी, परन्तु बुढ़िया को विश्वास था; कि कन्या का घन
खाने से उस जन्म में निकली, गिरगिट श्र भी क्या-क्या होता है ।
अपना-अपना विश्वास ही है, परन्तु धार्मिक विश्वास द्यो या नहीं;
बुदिया को पने आात्मायिमान का पूण विश्वास था । वह् अटल
रही । सर्दी के दिनों से अपने ठिठुरे हुए हाथ से वह छपने लिये
पानी भर के रखती । चपनी बेटी स सम्भवतः चतसाही काम
कराती जितना अभीरी के दिनोंमं कमी-कभी उषे अपने घर्
बुलाने पर कराती ।
याचून्पसनाथ उसे; मासिक बृत्ति देते थे। और भी तीन
चार पैसे उसे चबेनी के; जैसे और नौक़सें को सिलते थे; सिला
करते थे । कई बरस बुद़िया के बड़ी प्रसन्नता से कटे । उसे न
तो दुःख था छर न सुख । इुकानमे मादू लगाकर उसकी
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