प्रतिध्वनि | Pratidhwani

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Pratidhwani by जयशंकर प्रसाद - jayshankar prasad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१३ गर्दडी में लाल करने का फल भोगती है। श्रागामी भविष्य की उभ्बलतामे विश्वास रख कर हृदय के रक्त पर सन्तोष करे । जिस देश का भगवान हो नहीं; उसे विपत्ति क्या ! सुख क्या ! परन्तु बुद्विया सबसे यही कहा करती थी--'“मैं नोकरी करूंगी । कोई मेरी नौकरी लगा दो ।” देता कौन, जो एक घड़ा जल भी नदी भर सक्ती, जो स्वयं सही उठ कर सीधा खड़ी हो सकती थी; उससे कौन काम कराये ? किसी की सहायता लेना पसन्द नहीं, किसी की मिक्ता का अन्न उसके मुख में पेठता ही न था। लाचार होकर बाबू रामनाथ ने उसे अपनी दुकान में रख लिया । बुदिया को बेरी थो, वहं दो पैसे कमाती थी । अपना पेट पालती थी, परन्तु बुढ़िया को विश्वास था; कि कन्या का घन खाने से उस जन्म में निकली, गिरगिट श्र भी क्या-क्या होता है । अपना-अपना विश्वास ही है, परन्तु धार्मिक विश्वास द्यो या नहीं; बुदिया को पने आात्मायिमान का पूण विश्वास था । वह्‌ अटल रही । सर्दी के दिनों से अपने ठिठुरे हुए हाथ से वह छपने लिये पानी भर के रखती । चपनी बेटी स सम्भवतः चतसाही काम कराती जितना अभीरी के दिनोंमं कमी-कभी उषे अपने घर्‌ बुलाने पर कराती । याचून्पसनाथ उसे; मासिक बृत्ति देते थे। और भी तीन चार पैसे उसे चबेनी के; जैसे और नौक़सें को सिलते थे; सिला करते थे । कई बरस बुद़िया के बड़ी प्रसन्नता से कटे । उसे न तो दुःख था छर न सुख । इुकानमे मादू लगाकर उसकी




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