सूयगंड सुतं १ | Suygand Sutam 1
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
170
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)२४.
रे,
२६.
२७.
रद,
णावि संधि णच्चा णं
ते धम्मविश्नो जणा |
ते उ वादइणो एवं
ते दुक्खस्स पारगा ॥।
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ते णावि संधि णच्चाणं
ण ते धम्भविश्रो जणा ।
ते उ चाइणो एवं
ण ते मारस्स पारगा ॥
+
णाणाविहाइं
भ्रणहोंति पुणो
संसारचक्कवालभ्मि
मच्चु वाहिजराकूले ||
दुक्खाइं
पुणो |
उन्चावथाणि गच्छता
गन्भमेस्संतणंतसो ।
णायपुत्ते महावीरे
एवमाह जिणोत्तमे ॥
-- त्ति वेमि ।
बी्रो उद्देसो
श्राघायं पुण एगेसि
उववण्णा पुढो निया ।
वेदयति सुहु दुक्खं
श्रदुझ्ना लुप्पंत्ति ठाणश्रो ॥।
सुयगड-यु्तं
सन्धिको जान लेने मात्र से वे मनुष्य
धर्मविद् नहीं हौ जति । जोरएेसा
कहते हैं, ने दुःख के पार नहीं जा
सकते ।
सच्घि को जान लेने मात्र से वे मनुष्य
धर्मविद् नहीं हो जति। जोएेसा
कहते हैं, वे मृत्यु के पार नही जा
सकते ।
वे मृत्यु, व्याधि श्रौर बुढ़ापे से आकुल
संसार रूपी चक्र मे पुनः-पुनः नाना
प्रकार के दुःखों का श्रनुभव करते हैं ।
वे ऊव ओर नीच गतियों में भटकते
हुए अनन्तवार गर्भ में श्र एमे - एसा
जिनेश्वर ज्ञातपुत्र महावीर ने कहा
है।
--ऐसा मैं कहता हूँ ।
द्वितीय उद्देशक
कुछ कहते हैं कि जीव पृथक-पृथक
उत्पन्न होते हैं, सुख दुःख का शझ्रनुभव
करते ह ओर श्रपने स्थान से लुप्त
होते हैं, मरते हैं ।
समय
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