सूयगंड सुतं १ | Suygand Sutam 1

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Suygand Sutam 1 by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२४. रे, २६. २७. रद, णावि संधि णच्चा णं ते धम्मविश्नो जणा | ते उ वादइणो एवं ते दुक्खस्स पारगा ॥। 4 & 3 > ते णावि संधि णच्चाणं ण ते धम्भविश्रो जणा । ते उ चाइणो एवं ण ते मारस्स पारगा ॥ + णाणाविहाइं भ्रणहोंति पुणो संसारचक्कवालभ्मि मच्चु वाहिजराकूले || दुक्खाइं पुणो | उन्चावथाणि गच्छता गन्भमेस्संतणंतसो । णायपुत्ते महावीरे एवमाह जिणोत्तमे ॥ -- त्ति वेमि । बी्रो उद्देसो श्राघायं पुण एगेसि उववण्णा पुढो निया । वेदयति सुहु दुक्खं श्रदुझ्ना लुप्पंत्ति ठाणश्रो ॥। सुयगड-यु्तं सन्धिको जान लेने मात्र से वे मनुष्य धर्मविद्‌ नहीं हौ जति । जोरएेसा कहते हैं, ने दुःख के पार नहीं जा सकते । सच्घि को जान लेने मात्र से वे मनुष्य धर्मविद्‌ नहीं हो जति। जोएेसा कहते हैं, वे मृत्यु के पार नही जा सकते । वे मृत्यु, व्याधि श्रौर बुढ़ापे से आकुल संसार रूपी चक्र मे पुनः-पुनः नाना प्रकार के दुःखों का श्रनुभव करते हैं । वे ऊव ओर नीच गतियों में भटकते हुए अनन्तवार गर्भ में श्र एमे - एसा जिनेश्वर ज्ञातपुत्र महावीर ने कहा है। --ऐसा मैं कहता हूँ । द्वितीय उद्देशक कुछ कहते हैं कि जीव पृथक-पृथक उत्पन्न होते हैं, सुख दुःख का शझ्रनुभव करते ह ओर श्रपने स्थान से लुप्त होते हैं, मरते हैं । समय




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