'ही' और 'मी' पर विचार | Hi aur Mi par Vichar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(१७) काने ख्ये होगि भौर कई अन्य प्थर्छोको लेड छोडकर भेर प्रदेशमे निवाप कर गये होंगे, उप्त समय नों शब्द मेरे सुखसे निकठते थे, वह इस समय नहीं निकछते होंगे, अज्ञ प्रत्यड् में परित्पन्दात्मक क्रिया जो उप व्ल विद्यमान-मौजूद थी, इस समय न होगी, इससे यह कहना होगा कि मेरी अवत्थामें अवदय सेद हुआ होगा, नध । “ अवस्था मेदे अवश्थावतोपि मेद्‌ ” इस न्याय- से में वह न रहा ऐसा मान छूं तो कोई हानि नही, परन्तु मैं वह बिल्कुल ही नहीं, ऐसे ” ही ” शब्द नहीं छगा सक्ता, यत; ,*' ही ” के छगानेपे मुझे पृवकत कार्यवाही न माटुम होनी चाहिये और होती है, इससे मैं वह हूँ भी और नहीं भी, अर्थात्‌ अवस्थाके परिक्तनसे तो में ्षणमगुर हूँ, पर द्रव्यार्थिक नयसे आत्मद्न्पमें कुछ न्यूनाधिश्य नही हुआ जेते किपीके गमे कंठी (ग्रीवाशूषण) है उसे तोइकर उसने कड़ा बनाछ़िया बादमें क्डोरा बना छिया, यहांपर अवस्यावटम्बी पर्यायार्थिक नथ इते मे दी अनित्व मान हे, परन्तु सर्ण द्रव्पकी स्थिति ज्यों की त्यों कायम रहनेके कारण दार्थ नय इसे नित्य ही मानेगा वप्त ऐसे ही मैं हूं और नहीं




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