श्री यशोधर चरित्र | Shree Yashodhar Charitra

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Shree Yashodhar Charitra by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ग्रन्थ बनानेका सम्बन्ध कौडिन्य गौच रूप श्राकाशमें उद्योत करनेवाले दिवाकर तुल्य पसे वल्लभ नामक महाराजा जिनका द्वितीय नाम कृष्ण महाराज तिनके भरत नामक सन्त्रीके पुत्र नन्ह्के मन्दिरमे निवास करते ग्रभिमान-मेर पुष्पदन्त कृवि एेसा विचार करते हुए कि जो खोटे मार्गके प्रकाशक स्त्री आ्रादि कुकथाओओं सहित शास्त्रोंसे पुर्ण न हो, किन्तु धर्मवर्धिनी कोई ऐसी कथाका प्रारम्भ करं जिसके द्वारा श्रोता भौर वक्ता एवं दोनोको सीघ्रतर मोक्ष प्राप्त हो। पांच भरत, पाच एेरावत ओर पाच विदेह एव पंद्रह क्षेत्रों कीधरा, दयाकी साता श्रौर कृपाकी सखी है; उनमें ध्म उत्पन्न हेता है तथा उपयु क्त पचददय क्षेत्रे पाच विदेह तो स्थिर धर्यं है ब्र्थात्‌ विदेह क्षेमे श्रास्वती धमं रीति प्रचलित रहती है, किन्तु पाच भरत श्रौर पाच एेरावत एव दश क्षेत्रोंमें धर्मकी न्यूनाधिकता रहती है भ्र्थात्‌ कालचक्रके परिवतेनसे ध्मका प्रकान और व्युच्छेद होता रहता है । इस जम्बूद्धीपके भरतक्षेतरमे प्रथम ही धमक प्रकाशक वृषभ की ध्वजाके धारक चार प्रकार देवेन्ट्रोंको हर्षित करनेवाले श्रीवृपभदेव पुरुदेवस्वामी महा राजाधि रज हुए । उन्होंने जेसा धर्मेका स्वरूप प्रतिपादन किया, उसी प्रकार शेष तेवीस तीर्थकरोने भी किया, उन्हीके कथनानुसार मै भी जीवोंको हितकारिणी, ससारतरिणी, मिध्याधम विनादिनी श्रौर सत्यधर्स प्रकाशिनी कथाका श्रारम्भ करूंगा । इस कारण! उपयु क्त चतुर्विशति तीर्थक रोकी गुणमाला निज हुदयमें घारण करता हू जिससे समस्त विघ्नोकी शाति श्रौर मनोभिलवित कार्येकी सिद्धि हो ।




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