स्वदेशी और ग्रामोद्योग | Swadeshi Aur Gramodhyog

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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स्वदेशी ९. मेरे मनोगत बिचार ही इन कड़े शब्दों में प्रकट हो रहे हैं। वे बेचारे तो काम करते चले जा रहे थे; उन्हे यह थोड़े ही माठम था; कि इस काम में किसी तरह की कोई धोखा-धड़ी या आत्म-प्रवंचना है । में अपने असिप्राय को और अधिक स्पष्ट करूंगा । जिन चीज़ों के प्रचार के ठिए खास सहायता करने की जरूरत नहीं; उन्हीं चीज़ों की प्रदर्शिनी हम करते-फिरते हैं। इसका यह परिणाम होता है; किउन चीज़ों की या तो क़ीमत बढ़ जाती है; या एक-दूसरे के साथ स्पर्धा करनेवाठी उन्नतिशीछठ कोठियों में अवांछनीय रस्साकशी होने ठगती है । कपड़े की; शक्कर की और चावल की मिछो को हमारी मद्द्‌ की दरकार नदीं दे । किन्तु यदि हम अनर्मागी मदद्‌ इन मिलो को देते रदेगे, तो चरखा, करघा, खादी, ऊख पेरने का कोर्ट, ओर जीवन-प्रद तथा पोषक तत्त्वों से भरा हुआ गुड ओर इसी तरह ओखली-मूसल का छुटा चावछ--गॉँव की इन सब चोज़ों--का हम नाश कर देगे। इसछिए हमारा यह स्पष्ट कत्तंव्य है; कि गाँव के चरखे को; गाँव के कोल्हू को और गाँव की ओखलढी को किस रीति से जिन्दा रखा जा सकता दै, इसकी हमे बराबर खोज कपएते रहना चाहिए ! चरखे, कोल्टर ओर ओखटी के ही माङ का प्रचार किया जाय । उनके गुणों को बतढाया जाय | उनमें काम करनेवाले छोगों की स्थिति की जाँच-पड़ताढ की जाय ओर कल-कारखानों के बेकार बेंठे हुए कारीगरों की गणना करके श्राम के इन साधनों में--उनके श्राम्यरूप में ही--सुधार करने के तरीके दूँढ़कर मिछों की प्रतिस्पर्धा का सुका- विला करने में उन बेकार कारीगरों को मदद पहुँचाई जाय । « इन उद्योग-धन्धों के सम्बन्ध मे हमने कितनी भयंकर और




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