दुःखदग्घा | Dukh Dagdha

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Dukh Dagdha by गायत्री जोशी - Gayatri Joshi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दुखदग्धा 9 वह ठीक है फिर भी _..1 फिर भी की बात यह है कि लेखक तुम मेरे दोस्त बन गये हो ओर दोस्तो के बीच सारव्य भाव होता है ! वहा किमी शर्तं का विधान नही होता । उसके बात करने का ढंग मुझे अत्यधिक लुभावना लगा। अब मैं उससे भयभीत नहीं था बल्कि उसकी अनकही कथा के प्रति अनजाने ही आकर्षित हो गया था। मैं उत्सुक हो गया था यह जानने के लिए कि वह ऐसी कौनसी कथा है जिसके लिए इसने मुझे अपना दोस्त बनाया है अपनी कथा का श्रौता बनाया है। उसके प्रति । तुम्हारा बार बार चिन्तित हो जाना तुम्हारी हदयहीनता ओर भावे शून्यता की ओर सकेत करता है। मन हसते हुए उत्तर दिया-- तुम भी खूब हो एक ओर मुझे भाव शून्य ओर हदय शून्य कहती हो ओर दूसरी ओर मेरा पौछा भौ नहीं छोडती हो । उसने मरी बात का कोई उत्तर नही दिया । उसे चुपचाप खडी देखकर म जाने क्यों मैं तरल हो गया। मैने उसकी ओर देखकर कहा-- आओ मेरे पास आकर बैठो । इस कुर्सी पर बैठकर तुम मुञ्चे अपनी कहानी सुना कर अपने हदय का बाज्ञा हल्का कर लो । मरी वाणी अनजाने ही अपनत्व और आत्मीयता से भर गई थी । नहीं नही । तुम्हार पास मेरा बैठना सभव नही है ! मैं तुम्हे अपने स्थान इसी कोने में खडी रहकर अपनी कथा सुना दूगी । कथन के साथ उसने अपना स्थान ग्रहण कर लिया । लेकिन तुम वहां क्यों चली गई ? इस बार उसे अपने से दूर खड देखकर मै विचलित हो गया! तुम में दो खराब आदतें हैं... | मुझमें ? मैने आश्चर्य से पूछा । हा तुम्हारे में । एक तो तुम प्रश्न बहुत करते हो 1 ओर दुसरी खव आदत? मैंने हसकर पूछा । तुम सदैव नकारात्मक मुद्रा धारण किये रहते हो । ॥




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