ऋतंभरा | Ritambhara

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हिन्दी की उत्पत्ति तथव के विचार से धियसंन आईडि पंडितों ने राजस्थान, गुजरात, पंजाब और अवध कौ घाकृत बोलियों पर शौरसेनी का पिशोष प्रभाव स्वीकार किया है । राजस्थानी, गुजराती, पंजाबी ओर अवधी के विकास में शोरसेनी ने बहुत काम किया 1 सिफ आदेशिक घ्राकृतों से इन जोलियों की उत्पत्ति नहीं हुई; एसा विचार होता है । इस्वी घथम सहख, वर्ष! के चीच में प्राचीन सारतवष में एक नवीन राष्ट्र या साहिस्यिक भाषा का उदसव दुआ । यह अपडंश भाषा थी, जो शोरसनी प्राकृत की एक शेली थी । अपडंश माषा--यह शोरसनी यपश पंजाब स बगाल तक आर नेपाल सं महाराष्ट तक साधारण शिष्ट भाषा आर साहित्यिक भाषा बनी । लगभग इईरवी सच ८०० से १३ या १४ सा तक शारसनी अपडंश का प्रचार-काल था । गुजरात ओर राजपूताने कं जेमों के द्वारा इसमें एक बड़ा साहित्य बना । बंगाल के प्राचीन बौद्ध सिद्धाचायंगण इसमें पद रचते थे जिनका अन्त में भोटभाषा (तिव्बती) में उर्था हुआ था । इसके अलावा भारत में इस अपअंश में एक विराट लोकसाहित्य बना, जिसके टूटे-फूटे पद और गीत आदि हेमचन्द्के प्राकृत व्याकरण आर प्राकृत-पिंगल ओर छुन्द-प्न्थ में पाये जाते है । शौरसेनी अपडंश की प्रतिष्ठा के कई कारण थे । स्वी प्रथम सहखक की अन्तिम सदियों के राजपूत राजाओं की सभा में यह भाषा बोली जाती थी, क्योंकि यह माषा उसी समय मध्यदेश आर उसके संलग्न ान्तों में--झाधुनिक पद्ध मे--साघारणतः घरेलू भाषा-र्वरूप प्रयुक्त होती थी । द्वितीय कारण यह हैं कि इस समय गोरखपन्थी आदि अनेक हिन्दू सम्प्रदाय के गुरं लाग जो. पंजाब आर हिन्दुस्ताय्‌ से नवजात हिन्दू-धम की वाणी लेकर भारत के अन्य ग्रदेश में गये थे, वे भी इसी भाषा को बोलते थे, इसमें पद च्रादि बनाते थे, रोर इसी में उपदेश देते थे । उसी समय उत्तर- भारत के कमौ जिया आदि बाह्मण बंगाल आदि प्रदेश में बाह्यण श्ाचार प्रौर संस्कृति ले उपनिविष्ट हुए । इन सथ कारणे से, ्राज से लगभग एक हजार साल पहले, जिसे हम हिन्दी का पूवं रूप कह सकते है, वही ---८--~




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