अहार | Ahaar

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Aprahaar by यशपाल जैन - Yashpal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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| ड} जिनाय तथा प्राचीन प्रतिविम्ब जहां कहीं भी हो, उनके जीर्णो- द्वार करने शरीर उन्हें झधिक प्रभ।बशाली बनाने के काये मे कब सफल होते हैं । समाज के घनिक सज्जन खण्डित शोर ऋख्वश्डत मूर्तियों तथा मन्दिर के भग्न।वशेषों को संचित, सुर क्षित श्र सुसब्जित करके अपने घन, जन, शक्ति और समय का सदुपयोग करें तो बढ़ा उत्तम हो । ऐसे सुर्म्य पुण्यती्थ के दशनाथ पहुंचने के लिये मागे का ठीक दशाम होना अत्यावश्यक है । इस समय बहां जाने के लिए कच्चा रास्ता हैं, जो बहुत ही उ:बढ़खाबड़ तथा असुविघा- जनक हैं । हार को प्रकाश मे लाने के लिए टीकमगढ़ से बहा तक पक्की सङ्क काहोना जरूरी दे । घजरई नामक प्राम तक तो सढ़क हैं क्रवल सात-श्याठ मील को सड़क बननी है । शा है, जैनसमाज के घनीमानी महानुभाव उस श्रोर ध्यान देंगे । श्रव तक रहार क) नमु चित ख्याति न मिलने का बहुत कुछ कारण पक्की सडक का न होना है । हार में इस समय लगभग ढाई सो प्रतिमाश्चो का संग्रह किया जा चुका दै । उन्हें व्यवस्थित रूप से प्रतिष्ठित करने के लिये एक सप्रहालय की श्ावश्यकत। है, जिसके निर्माण का काय शीघ्र ही प्रारम्भ होने वाला है। स्व० त्र० शीतलप्रसाद के परि- चरया कोष के बने हुए द्रव्य में से संप्रहालयका काम शुरू कर देने के लिये एक जार रुपये देने का निश्चय किया जा चुका) श्री यशपल्ञ जी जल्द दो इख कायं का श्री गोश कर देने । देसी छाशा है ।




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