रवीन्द्र साहित्य भाग 16 | Ravindar Sahitya Bhag 16

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Ravindar Sahitya  Bhag 16 by रवीन्द्रनाथ ठाकुर - Ravindranath Thakur

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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धृतराष्ट्र-- गान्धारी-- गान्धासेसा आवेदन : काव्य कोपो कृपाणे पदी अचल दो सोती रहीं लुप्त वज़-नि भेपित विदुत-री 1 महाराज, सुनो मदाराज, मेरी विनय विनम्र आज, दूर करो जननीकी ज्जा ग्लानि, लजानत वीरताके धमैका उद्धार करो, मर्माइत विकल सतीत्वके दो आंसू पो, अवनत झुचि न्याय-वर्मृकी प्रतिष्ठा करो, तेण - वत्‌ त्याग दो दुर्योधनको ! पश्चात्ताप - तापसे जो जजर हदय स्वत, उसपर करती दो चोट व्यथे, रानी तुम । सौ-गुनी क्या मु, नाय, होती नहीं वेदना दै 2 दण्डितके किन्तु साथ एकर-सा आघात पाके जव दण्डदाता रोता तभी, प्रभु, वह सष्वा सर्वेत्करट न्याय दोत्ता । पाता नदीं जिसके किए है न्यथा प्राण॒ - मन, उसे दण्ड देना बलवानका है उत्पीढ़न । पुत्रको जो दण्ड-पीडा देनेमें हो असमथ, वृह किसी-ओौरको न देना कभी भूल व्यथै । पुत्र जो ठम्दारा नदी, उसके क्या पिता नही * मदा-अपराधी होंगे उसके निकट, कहीं न्यायाधीश उसके जोदोगे1 सुनती दू यद, विखव-विधाताकी हम सभी दँ सन्तान, वद नारायण पुत्रोंका विचार करता है स्थिर, अपने दी हाथों व्यथा देके व्यथा पाता फिर साथ-साथ, अन्यथा नदीं है अधिकारी वद न्याय करनेका कमी । मै द्र मूढ नारी, यद्‌ १६




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